मेवाड़ के वीर राजा, वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की जयंती 9 मई को मनायी जाती है। हिंदू कैलेंडेर के अनुसार यह हर साल ज्येष्ठ माह शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनायी जाती है। यह दिवस वीरता, साहस, दृढ़ संकल्प और अटूट देशभक्ति का प्रतीक है। महाराणा प्रताप ने मुगल सम्राट अकबर के विशाल साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपनी स्वतंत्रता और मेवाड़ की रक्षा की। उनकी वीरता और बलिदान आज भी भारत के लोगों को प्रेरित करते हैं।
महाराणा प्रताप – 1572-1597 ई.
- महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. (ज्येष्ठ शुक्ल 3 विक्रम संवत् 1597) रविवार को कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध बादल महल की जूनी कचहरी में हुआ।
- महाराणा महाराणा प्रताप जैवन्ता बाई (पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री) तथा राणा उदयसिंह के पुत्र थे। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। कीका स्थानीय भाषा में छोटे बच्चे का सूचक है। आज भी दक्षिणी-पश्चिमी मेवाड़ में पुत्र को कीका या कूका कहते हैं।
- महाराणा प्रताप का विवाह रामरख पंवार (बिजोलिया का जागीरदार) की पुत्री अजबदे के साथ हुआ। मालदेव राठौड़ के ज्येष्ठ पुत्र राम की पुत्री फूलकंवर का विवाह भी महाराणा प्रताप के साथ हुआ जिसके दो पुत्र चांदा और शेखा थे। अजबदे पंवार के दो पुत्र अमरसिंह व भगवानदास हुए।
- महाराणा प्रताप का बचपन कुंभलगढ़ में ही व्यतीत हुआ।
- राणा उदयसिंह ने भटियाणी रानी धीर बाई के प्रभाव में आकर बड़े पुत्र महाराणा प्रताप के स्थान पर जगमाल को उत्तराधिकारी बनाया।
- रावत कृष्णदास और ग्वालियर के राजा रामशाह तंवर ने जगमाल को सिंहासन से उठाकर महाराणा प्रताप को सिंहासन पर आसीन किया। गोगुन्दा में महादेव बावड़ी पर होली के दिन महाराणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में 28 फरवरी, 1572 ई. को गुरुवार के दिन राज्याभिषेक किया गया।
- महाराणा प्रताप की कमर पर राजकीय तलवार रायत कृष्णदास ने बांची।
- असन्तुष्ट जगमाल गोगुन्दा से अकबर की शरण में चला गया, अकबर ने उसे पहले जहाजपुर और बाद में सिरोही का आधा राज्य दे दिया। 1583 ई. में दत्ताणी के युद्ध में जगमाल सिरोही के सुरताण देवडा (जगमाल का साला) के हाथों मारा गया।
महाराणा प्रताप और अकबर
- महाराणा प्रताप ने भी अपने पिता उदयसिंह की तरह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।
- 1570 ई. के नागौर दरबार में राजपूताना के अधिकांश शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अकबर ने महाराणा प्रताप को अपने अधीन लाने के लिये 1572 ई. से 1576 ई. के बीच चार शिष्टमंडल भेजे। लेकिन ये चारों शिष्टमण्डल महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने में असफल रहे।
- जलाल खां कोरची द्वारा सन्धि प्रस्ताव (सितंबर-नवंबर 1572 ई.) सितम्बर 1572 ई. के आरम्भ में गुजरात विजय हेतु जाते समय मेवाड़ के बागौर (भीलवाडा) स्थान से अकबर ने जलाल खां कोरची को महाराणा प्रताप के साथ सुलहवार्ता करने हेतु भेजा। लगभग दो माह तक दोनों पक्षों में वार्ता चली, लेकिन जलाल खां को सफलता नहीं मिली। 27 नवंबर, 1572 ई. को कोरची ने अहमदाबाद पहुंच कर अकबर को महाराणा प्रताप के साथ हुई वार्ता की जानकारी दी।
- मानसिंह द्वारा सन्धि प्रस्ताव (जून. 1573 ई.) – गुजरात विजय के बाद अकबर ने मानसिंह कछवाहा को 1573 ई. में महाराणा प्रताप से मिलने के लिए भेजा। इस शिष्टमण्डल में शाहकुली खां, जगन्नाथ, राजगोपाल, बहादुर खां, जलाल खां व भोज आदि सम्मिलित थे। महाराणा प्रताप इस समय गोगुंदा में थे। मानसिंह की अगवानी करने हेतु राणा उदयपुर पहुंचे। दोनों की मुलाकात उदयसागर झील की पाल पर हुई, लेकिन वह भी राणा को अकबर की अधीनता स्वीकार करवाने में असफल रहा। ‘अमरकाव्यम’ में लिखा है कि महाराणा प्रताप ने मानसिंह का आतिथ्य उदयसागर की पाल पर किया था। दयालदास कृत ‘राणारासो’, ‘रावल राणा री बात’, किशोरदास कृत ‘राजप्रकाश’, ‘सिसोदिया री ख्यात’ आदि अन्य स्रोतों में मानसिंह और महाराणा प्रताप के बीच वार्ता उदयपुर में ही होना लिखा है। गोपीनाथ शर्मा के अनुसार यह वार्ता गोगुंदा में हुई।
- भगवानदास द्वारा सन्धि प्रस्ताव (सितम्बर-अक्टूबर 1573 ई.): अकबर ने अहमदाबाद से मानसिंह के पिता भगवन्तदास (भगवानदास) को कई प्रतिष्ठित मुस्लिम सेनानायकों के साथ ईसर के रास्ते से महाराणा प्रताप के पास भेजा। महाराणा प्रताप को अपनी शक्ति का परिचय देने के लिए उसने मार्च में बड़नगर व रावलिया पर अधिकार कर लिया। ईडर के शासक नारायणदास (महाराणा प्रताप के श्वसुर) ने भगवंतदास की अगवानी की। ईडर से भगवंतदास, शाहकुली खां, महरम लश्कर खां आदि ने सहयोगियों के साथ गोगुंदा पहुंचकर महाराणा प्रताप से मुलाकात की। भगवंत दास को भी असफलता मिली।
- टोडरमल द्वारा सन्धि प्रस्ताव (दिसंबर 1573 ई.): गुजरात से लौटते हुए दिसंबर 1573 ई. में टोडरमल अकबर के आदेशानुसार गोगुंदा आया, वह महाराणा प्रताप से मिला। महाराणा प्रताप अपने सिद्धान्त पर अडिग रहे। टोडरमल अपने प्रयास में असफल रहा।
अकबर द्वारा भेजे गये चार शिष्टमंडल व उनका क्रमः |
हल्दीघाटी का युद्ध जून 1576 ई.
महाराणा प्रताप पर सैनिक कार्यवाही करने के उद्देश्य से अकबर ने 19 मार्च 1576 ई. को फतेहपुर सीकरी से अजमेर की ओर प्रस्थान किया। अकबर ने हल्दीघाटी युद्ध की रणनीति अकबर के किले जिसे संगजीन का किला या अकबर का दौलतखाना कहा जाता है, में बनाई। अकबर ने मानसिंह को मुख्य सेनापति व आसफखां को सहयोगी सेनापति नियुक्त किया।
- प्रसिद्ध इतिहासकार बदायूँनी भी इस युद्ध में साथ गया था। उसने नवी खां नामक सेनापति को भी युद्ध में चलने के लिए कहा। लेकिन नबी खां ने कहा – यदि इस सेना का सेनापति एक हिन्दू न होता, तो मैं पहला व्यक्ति होता जो इस युद्ध में शामिल होता।
- महाराणा प्रताप ने अपनी राजधानी गोगुन्दा से अकबर के मार्ग से दूर कुम्भलगढ़ स्थानान्तरित कर दी तथा हल्दीघाटी युद्ध की रणनीति कुम्भलगढ़ दुर्ग में बनाई।
हल्दीघाटी के युद्ध में लड़ते हुए महाराणा।
3 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह अजमेर से रवाना हुआ तथा दो माह माण्डलगढ़ (भीलवाडा) रुका। माण्डलगढ़ में अपने सैन्यबल में अभिवृद्धि कर मानसिंह खमनोर गांव के पास पहुंचा। इसके बाद मोलेला गांव में अपनी विशाल सेना का पड़ाव डाला। यह गांव बनास नदी के दूसरे छोर पर है। महाराणा प्रताप मुगल सेना से लोहा लेने के उद्देश्य से कुम्भलगढ़ से प्रस्थान कर गोगुन्दा पहुंचा। महाराणा प्रताप ससैन्य गोगुंदा से चलकर लोहसिंहगढ़ पहुंचा, जहां उसने अपनी सेना का पड़ाव डाला। गोगुंदा और खमनौर के बीच एक अत्यन्त संकीर्ण मार्ग वाली घाटी का नाम हल्दीघाटी है। यहां हल्दी के समान रंग वाली पीली मिट्टी पाई जाती है इसलिए इसका नाम हल्दीघाटी पडा।
- सेना के सबसे आगे वाले भाग को ‘हरावल’ तथा सबसे पीछे वाले भाग को चन्द्रावल कहा जाता था।
- मुगल सेना में हरावल सेना का नेतृत्व सैयद हाशिम कर रहा था। उसके साथ मुहम्मद रफी बदख्शी, राजा जगन्नाथ और आसफ खां थे।
- महाराणा प्रताप की सेना का हरावल नेता हकीम खां सूर था जिसके साथ सलूम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा व मेड़ता का रामदास (जयमल का पुत्र) था।
- महाराणा प्रताप की हरावल सेना का नेतृत्व हाकिम खां सूर कर रहा था। यह महाराणा प्रताप का एकमात्र मुस्लिम सेनापति था। इसका मकबरा खमनार (राजसमंद) में स्थित है।
- महाराणा प्रताप की चन्द्रावल सेना का नेतृत्व पूंजा भील ने किया, जिसे महाराणा प्रताप ने राणा लगाने की इजाजत दी।
- हल्दीघाटी के युद्ध का प्रत्यक्ष द्रष्टा इतिहासकार बदायूँनी था, जिसने मुंतकाफ-उल-तवारीख में इस युद्ध का वर्णन किया।
- मुगल सेना के चन्द्रावल भाग का नेतृत्व मिहत्तर खां ने किया था, जिसने बादशाह अकबर के आने की झूठी खबर फैलाई थी।
- गिरधर आसिया द्वारा रचित सगतसिंह रासो (943 छंद) के अनुसार, इस युद्ध में महाराणा प्रताप का सौतेला भाई शक्तिसिंह मुगलों की तरफ से लड़ा था।
- मानसिंह कछवाहा ने ‘मरदाना’ हाथी पर बैठकर युद्ध लड़ा था। अकबर के हाथी का नाम ‘हवाई’ था।
- मेवाड़ की तरफ से लूना व रामप्रसाद तथा मुगलों की ओर से गजमुक्ता (गजमुख), गजराज व रन-मदार हाथियों ने युद्ध में भाग लिया।
- महाराणा प्रताम नीले ‘श्वेत’ चेतक पर आरूढ़ था। चेत्तक के घायल होने के बाद महाराणा प्रताप का छत्र सादड़ी के झाला बीदा ने धारण किया तथा महाराणा प्रताप के जीवन को बचाया। झाला बीदा मुगल सेना से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। हकीम खां द्वारा महाराणा प्रताप को रणक्षेत्र से सकुशल बाहर ले जाया गया। यह हल्दीघाटी के रास्ते से कोल्यारी (झाडोल, उदयपुर) की तरफ प्रस्थान कर गए। हकीम खा पुनः रणक्षेत्र में पहुंच शत्रुओं से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
- युद्ध में जयमल का पुत्र रामदास मेड़तिया, जगन्नाथ के हाथ से मारा गया। उसके साथ उसका पुत्र किशनदास भी वीरगति को प्राप्त हुआ। रामशाह तंवर अपने तीनों पुत्रों सहित वीरगति को प्राप्त हुआ। महाराणा प्रताप का मामा मानसिंह सोनगरा अपने अनुचरों के साथ मृत्यु को प्राप्त हुआ। सरदारगढ़ के भीमसिंह डोडिया, प्रतापगढ़ के महारावल तेजसिंह के काका कांधल भी वीरगति को प्राप्त हुए। महाराणा प्रताप के अनुज कान्हा और कल्ला भी लड़ाई में मारे गये।
- रणक्षेत्र में बचने वालों में सलूम्बर का रावत कृष्णदास या किशनदास, घाणेराव (पाली) का गोपालदास, भानाशाह, ताराचन्द्र आदि प्रमुख थे।
- अमरकाव्य, वंशावली व राजप्रशस्ति के अनुसार, शक्तिसिंह ने महाराणा प्रताप के पीछे लगे मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतारा था। महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक ने बलीचा गांव (राजसमंद) के पास के नाले को पार करते समय अपने प्राण त्याग दिये तथा वहीं पर चेतक का चबूतरा स्थित है।
चेतक पर सवार राणा प्रताप की प्रतिमा (महाराणा प्रताप स्मारक समिति, मोती मगरी , उदयपुर)
- शक्तिसिंह द्वारा महाराणा प्रताप की सहायता के कारण उसके वंश को सम्मानित किया गया। शक्तिसिंह के वंशज (शक्तावत) खुरासान मुल्तान रा आगल विरुद से सम्बोधित किये जाने लगे। शक्तिसिंह और महाराणा प्रताप का मिलन वर्णन अमरकाव्य वंशावली व राजप्रशस्ति में मिलता है।
- महाराणा प्रताप के साथ ही उसकी बची सेना कोल्यारी पहुंची, जहां घायल सैनिकों का उपचार किया गया।
- अकबर का यह सैन्य अभियान असफल रहा। युद्ध के परिणाम से खिन्न होकर अकबर ने मानसिंह और आसफ खां की कुछ दिनों के लिए ड्योढ़ी बंद कर दी अर्थात् उनको दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया।
- कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक ‘एनाल्स एण्ड एटीक्यूटीज ऑफ राजस्थान’ में प्रथम बार इस युद्ध को हल्दीघाटी युद्ध के नाम से संबोधित किया। इसके अलावा टॉड ने इसे ‘मेवाड़ का थर्मोपिल्ली’ भी कहा है। बदायूँनी द्वारा इस युद्ध को गोगुन्वा का युद्ध तथा अबुल फजल ने खमनौर का युद्ध कहा है।
- हल्दीघाटी के युद्ध के चार माह बाद अकबर स्वयं 12 अक्टूबर, 1576 ई. को अजमेर से प्रस्थान कर एक बड़ी सेना के साथ मांडलगढ़ और मदारिया होता हुआ मोही स्थान पर पहुंचा। 13 अक्टूबर, 1576 ई. को गोगुन्दा पर मुगलों का अधिकार हो गया। अकबर उदयपुर आया उसने उदयपुर का नाम मुहम्दाबाद कर दिया। इसके बाद अकबर हल्दीघाटी देखने गया। परंतु अकबर महाराणा प्रताप को पकड़ने में असफल रहा। इसके बाद अकबर द्वारा शाहवाज खाँ के नेतृत्व में महाराणा प्रताप को पकड़ने के लिए 3 बार मेवाड़ पर आक्रमण किया गया।
शाहबाज खां के नेतृत्व में सैनिक अभियानः
- अकबर ने शाहबाज खा के नेतृत्व में महाराणा प्रताप के विरुद्ध तीन सैनिक अभियान भेजे थे।
- प्रथम अभियानः 15 अक्टूबर 1577 ई. – अकबर ने शाहबाज खां के नेतृत्व में राजा भगवानदास, मानसिंह, सैयद हाशिम् सैयद कासिम व गाजी खा बदख़्शी को मेवाङ अभियान पर भेजा।
कुंभलगढ़ का युद्ध 1578 ई. – शाहबाज खां ने 1578 ई. में कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया। महाराणा प्रताप ने अपने मामा भाणसिंह सोनगरा को (अखैराज सोनगरा का पुत्र) कुंभलगढ़ का किलेदार नियुक्त किया और वह स्वयं अर्द्धरात्रि को वहां से ससैन्य निकल गया। भाणसिंह सोनगरा के नेतृत्व में राजपूत लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। 3 अप्रैल, 1578 ई. को अजेय दुर्ग कुम्भलगढ़ पर शाहबाज खां का अधिकार हो गया। शाहबाज खां ने मेवाड़ में लगमग 50 थाने स्थापित किये। इतिहास में कुंभलगढ़ दुर्ग को एक बार ही जीता गया है। शाहबाज खां ने गाजीखां बदख़्शी को दुर्ग का किलेदार नियुक्त किया। - दूसरा अभियान 15 दिसम्बर 1578 ई. – शाहबाज खां दूसरी बार महाराणा प्रताप को पकड़ने के लिये मेवाड़ आया लेकिन असफल रहा।
- तीसरा अभियान नवम्बर 1579 ई. -अकबर ने 9 नवंबर, 1579 को शाहबाज खां को महाराणा प्रताप के विरुद्ध मेवाड़ मेजा। शाहबाज खा हुए आबू के उत्तर-पश्चिम में सूधा के पहाड़ों में चले गए। महाराणा प्रताप लोमण/लोयाना के ठाकुर रामधूला/धवल के अतिथि बनकर रहे। रामधूला ने अपनी पुत्री का विवाह महाराणा प्रताप के साथ किया। महाराणा प्रताप ने रामधूला को ‘राणा’ की उपाधि से विभूषित किया।
- महाराणा प्रताप ने सूधा में एक बावड़ी का निर्माण करवाया और वहां बगीचा लगाया।
- मई 1580 ई. में शाहबाज खां मेवाड छोड़कर वापस चला गया, महाराणा प्रताप पुनः मेवाड़ चले आये। महाराणा प्रताप सागर परगने के ढोलाण गांव में निवास करने लगे। बोलाण गांव से महाराणा प्रताप पुनः चावंड पहुंच गये।
अब्दुर्रहीम खानखाना का मेवाड़ अभियान 1580 ई. – अजमेर के सूबेदार रुस्तम खां की शेरपुरा में मृत्यु होने के बाद अकबर ने जून 1580 ई. में अब्दुर्रहीम खानखाना को अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया। अब्दुर्रहीम ने शेरपुरा में अपना शिविर स्थापित किया। महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने शेरपुरा पर आक्रमण कर अब्दुर्रहीम के परिवार को बंदी बना लिया। महाराणा प्रताप के आदेश पर कु. अमरसिंह ने अब्दुर्रहीम के परिवार को ससम्मान वापस छोड़ दिया।
भामाशाह से मुलाकात (1578 ई.) : भामाशाह व ताराचंद ने महाराणा प्रताप से मुलाकात की उस समय राणा चूलिया गांव (वित्तौड़गढ़) में थे। भामाशाह व ताराचन्द ने मालवा पर धावा मारकर 25 लाख रु. तथा 20 हजार सोने की अशर्फिया एकत्र की थीं। यह धनराशि भामाशाह ने महाराणा प्रताप को भेंट कर दी। महाराणा प्रताप ने रामा महासहाणी के स्थान पर भामाशाह को अपना प्रधानमंत्री बनाया। भामाशाह द्वारा भेंट की गई धनराशि से महाराणा प्रताप 25 हजार सेना का 12 वर्ष तक खर्च चला सकता था।
भामाशाह –
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दिवेर का युद्ध अक्टूबर 1582 ई.
- दिवेर चौकी का प्रभारी अकबर का काका सेरिमा सुल्तान खां था। महाराणा प्रताप व उसके पुत्र अमरसिंह ने दिवेर पर आक्रमण किया।
- युद्ध में अमरसिंह ने अपना भाला इतनी शक्ति से मारा कि वह सुल्तान खां को वेधता हुआ उसके घोड़े के भी आर-पार हो गया।
- दिवेर (राजसमंद) से महाराणा प्रताप की विजयों की शुरुआत मानी जाती है। दिवेर के युद्ध को महाराणा प्रताप के गौरव का प्रतीक कहा जाता है।
- कर्नल टॉड ने दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मैराथन कहा है। दिवेर के बाद महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ पर अधिकार कर लिया।
युद्ध विजय स्मारक, दिवेर
जगन्नाथ कछवाहा का अभियान 5 दिसम्बर, 1584 ई.
- अकबर ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध अन्तिम अभियान के रूप में आमेर के भगवानदास के भाई जगन्नाथ को मेवाङ भेजा।
- जगन्नाथ कच्छवाहा को सफलता नहीं मिली अपितु उसकी माण्डलगढ़ (भीलवाडा) में मृत्यु हो गई जहां उसकी 32 खंभों की छतरी बनी हुई है।
- 1585 ई. के बाद अकबर ने मेवाड़ पर कोई आक्रमण नहीं किया। 1585 ई. में महाराणा प्रताप ने लूणा राठौड (चावड़िया) को पराजित कर चावंड पर अधिकार कर लिया तथा चावंड को राजधानी बनाया। 1585 ई. से 1615 ई. तक मेवाड़ की राजधानी चावंड रही। दिवेर की विजय व चावंड को राजधानी बनाने के बाद महाराणा प्रताप ने वित्तौड़ व मांडलगढ़ को छोड़कर शेष पूरे मेवाड़ पर अपना अधिकार कर लिया। महाराणा प्रताप 1585 ई. से 1597 ई. तक चावंड में रहा।
- चावंड में प्रवास करते समय 1597 ई. के प्रारम्भ में बाघ का शिकार करते समय धनुष की प्रत्यंचा खींचने के प्रयत्न में महाराणा प्रताप की आंतों में अंदरूनी चोट आ गई। इस व्याधि से कुछ दिनों तक पीड़ित रहने के बाद 10 जनवरी, 1597 ई. को महाराणा प्रताप का निधन हो गया।
- महाराणा प्रताप का चावंड के पास बाण्डोली गांव (उदयपुर) के निकट बहने वाले नाले के तट पर दाह संस्कार हुआ। खेजड़ बांध के किनारे महाराणा प्रताप की 8 खंभों की छतरी बनी हुई हैं। कर्नल टॉड द्वारा पिछौला की पाल के महलों में राणा की मृत्यु होना बताया जाता है।
साहित्य के क्षेत्र में योगदान
- महाराणा प्रताप के दरबारी पण्डित चक्रपाणि मिश्र ने चार ग्रंथों की रचना की-
1. विश्ववल्लम
2. मुहूर्तमाला
3. व्यवहारादर्श
4. राज्याभिषेक पद्धति
- महाराणा प्रताप के संरक्षण में लिखी गई ‘राज्याभिषेक पद्धति’ भारतीय शासकों के लिए आदर्श बनी। मेवाड और गुजरात के शासकों सहित मराठा शासक भी अपना अभिषेक इसी पद्धति से करवाने लगे।
- हेमरतन की अन्य रचनाएं महिपाल चौपाई, अमरकुमार चौपाई, सीता चौपाई और लीलावती।
- दुरसा आढ़ा ने महाराणा प्रताप के नाम पर ‘विरूद छिहतरी’ और अज्ञात कवि ने ‘पतायण’ नाम के ग्रन्ध रचना की है।
- हेमरत्न द्वारा महाराणा प्रताप के काल में गोरा बावल पद्मिनीचरित्र चौपाई की रचना भी की गई।
- चारण कवि माला सांदू ने महाराणा प्रताप की प्रशंसा में ‘प्रतापसिंह का झूलणा’ लिखा।
स्थापत्य कला
- मेवाड़ की सांस्कृतिक परम्परा के अनुकूल महाराणा प्रताप के द्वारा निर्मित कराये गये स्थापत्य स्मारकों में झाडोल तहसील में बदराणा नामक स्थान पर स्थित हरिहर का मन्दिर प्रमुख है।
- महाराणा प्रताप ने चावंड में अपने निवास के लिए राजप्रासादों का निर्माण कराया। चावंड के भग्नावशेषों के अवलोकन से विदित होता है कि बस्ती के बीच खुला चौक छोड़ा जाता था। यह भारतीय वास्तु-विन्यास के अन्तर्गत ‘एकाशीतिपदवास्तु’ की व्यवस्थानुसार प्रतीत होता है।
- महलों के निकट चामुण्डा देवी का मन्दिर बना हुआ है। यह महाराणा प्रताप की आराध्य देवी थी। चावंड में भामाशाह की हवेली भी स्थित है।
- महाराणा प्रताप द्वारा चयनित चावंड राजधानी चामुण्डी नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित है।
चित्रकला शैली
- महाराणा प्रताप ने संगीत, मूर्तिकला और चित्रकला को संरक्षण दिया। उनके दरबार में निसारदी जैसे चित्रकार से छह राग और छत्तीस रागिनियों के ध्यान चित्र बनाकर चावण्ड चित्र शैली को जन्म दिया।
- चावंड शैली के बने कई चित्र गोपीकृष्ण कानोडिया और गांतीचन्द्र खजांची के संग्रह में विद्यमान है।
- रागमाला का एक चित्र महाराणा प्रताप के शासनकाल के तुरन्त बाद (1605 ई.) निर्मित हुआ था। ‘रागमाला’ का चित्रकार निसारदी (नासिरुद्दीन) था। वह मुसलमान था और महाराणा प्रताप की राजधानी चावंड में रहता था। उसे महाराणा प्रताप का संरक्षण प्राप्त था।
- महाराणा प्रताप के स्मारक
1. हल्दीघाटी (राजसमंद)
2. फतेहसागर झील (उदयपुर)
3. पुष्कर (अजमेर)
- मेवाड़ फाउंडेशन द्वारा खेल के क्षेत्र में महाराणा प्रताप पुरस्कार व पत्रकारिता के क्षेत्र में हल्दीघाटी पुरस्कार दिया जाता है।
- हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द के लिए हाकिम खां सूरी पुरस्कार दिया जाता है।
- जनजाति उत्थान के लिये राणा पूंजा पुरस्कार दिया जाता है।
- पाथल व पीथल – यह रचना कन्हैयालाल सेठिया ने लिखी। इसमें पाथल महाराणा प्रताप व पीथल पृथ्वीराज राठौड़ को कहा गया है।
- पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा प्रताप के लिये कहा था-
मायह जैड़ो पूत जण, जैडो महाराणा प्रताप।
अकबर सूतो ओझको, जाण सिराणे सांप।।
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