सामान्य अध्ययन पेपर II: भारतीय संविधान |
चर्चा में क्यों?
भारत में कॉलेजियम प्रणाली (collegium system): हाल ही में पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे ने, दिल्ली हाई कोर्ट के ‘घर पर नकदी’ मामले पर न्यायपालिका की पारदर्शिता पर सवाल करते हुए, न्यायिक नियुक्ति प्रणाली में व्यापक बदलाव की मांग की है, ताकि लोकतंत्र की इस प्रतिष्ठित संस्था में पारदर्शिता और विश्वास बढ़ाया जा सके।
- इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने औपचारिक रूप से सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस ए.एम. भट्टाचार्जी (1995) 5 SCC 457 के तहत स्थापित इन-हाउस जांच प्रक्रिया शुरू कर दी है।
कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) क्या हैं?
भारत में कॉलेजियम प्रणाली एक ऐसी विशिष्ट व्यवस्था है, जिसके तहत उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) और उच्च न्यायालयों (High Courts) में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण किए जाते हैं।
- यह प्रणाली न तो किसी संवैधानिक प्रावधान पर आधारित है और न ही किसी संसदीय अधिनियम पर।
- कॉलेजियम प्रणाली संविधान में मूल रूप से निहित नहीं थी। यह प्रणाली सुप्रीम कोर्ट के तीन ऐतिहासिक फैसलों के क्रमिक विकास का परिणाम है, जिन्हें “जजेस केस” कहा जाता है।
- कॉलेजियम प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पूरी तरह से न्यायपालिका के नियंत्रण में है। इसमें कार्यपालिका (Executive) का दखल नगण्य है, जो न्यायिक स्वतंत्रता को मजबूत बनाता है।
- यह प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि जजों की नियुक्ति में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप न हो और निष्पक्षता व पारदर्शिता बनी रहे।
कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) की संरचना और कार्यप्रणाली
भारत की न्यायिक व्यवस्था में कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) का गठन मुख्य रूप से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से होता है।
- संरचना:
- सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम में कुल पांच सदस्य होते हैं। इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) कॉलेजियम के अध्यक्ष और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश – जो CJI के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
- उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए संबंधित हाईकोर्ट का कॉलेजियम जिम्मेदार होता है। इसमें मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice) – कॉलेजियम के अध्यक्ष और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश – जो मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श करके नामों की सिफारिश करते हैं, इसमें शामिल होते है।
- यह कॉलेजियम उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और पदोन्नति की सिफारिश करता है। इसकी सिफारिशों को केंद्र सरकार तक भेजा जाता है, हालांकि अंतिम निर्णय कॉलेजियम की सहमति के बिना संभव नहीं होता।
- कार्यप्रणाली:
- चयन और नामांकन: हाईकोर्ट कॉलेजियम अपने न्यायालय के योग्य उम्मीदवारों का चयन करता है, जबकि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए नामांकन करता है।
- न्यायाधीशों के स्थानांतरण में भी कॉलेजियम की अहम भूमिका होती है।
- सिफारिश और समीक्षा: हाईकोर्ट कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित नाम सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को भेजे जाते हैं, जो उनकी समीक्षा करता है। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम योग्यता, वरिष्ठता और कार्यक्षमता के आधार पर नामों को मंजूरी देकर केंद्र सरकार को सिफारिश भेजता है।
- सरकार की भूमिका: केंद्र सरकार कॉलेजियम की सिफारिशों को मंजूर करने या आपत्ति उठाने का अधिकार रखती है। यदि सरकार को किसी नाम पर आपत्ति होती है, तो वह पुनः विचार के लिए कॉलेजियम को वापस भेज सकती है।
- पुनः समीक्षा और अंतिम निर्णय: कॉलेजियम पुनः समीक्षा के बाद भी अगर अपने पूर्व प्रस्ताव पर कायम रहता है, तो सरकार को अनिवार्य रूप से उस सिफारिश को स्वीकार करना पड़ता है। कॉलेजियम का अंतिम निर्णय बाध्यकारी होता है।
- नियुक्ति प्रक्रिया:
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- भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वरिष्ठता परंपरा के तहत सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को प्राथमिकता दी जाती है।
- सर्वोच्च न्यायालय के जजों के नाम की सिफारिश CJI और संबंधित उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम जजों द्वारा किया जाता है। इस सिफारिश को कानून मंत्री के माध्यम से प्रधानमंत्री को भेजा जाता है, जो राष्ट्रपति को सलाह देते हैं।
- उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में किसी अन्य राज्य के न्यायाधीश को नियुक्त करने का प्रावधान है। कॉलेजियम यह निर्णय संबंधित उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम सहयोगियों से परामर्श के बाद लेता है।
- उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति के लिए CJI और दो वरिष्ठतम जजों का कॉलेजियम प्रस्ताव तैयार करता है। यह प्रस्ताव राज्यपाल के माध्यम से कानून मंत्री तक पहुंचाया जाता है, जो अंतिम निर्णय के लिए केंद्र सरकार को भेजते हैं।
कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) का ऐतिहासिक विकास
- प्रथम न्यायाधीश मामला (1981): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि न्यायिक नियुक्तियों में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की राय को अंतिम नहीं माना जाएगा। कार्यपालिका को यह अधिकार दिया गया कि वह “ठोस और तार्किक कारणों” के आधार पर CJI की सिफारिश को अस्वीकार कर सकती है। इस फैसले से न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित हो गई।
- दूसरा न्यायाधीश मामला (1993): इस ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले निर्णय को पलटते हुए कॉलेजियम प्रणाली की नींव रखी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “परामर्श” का मतलब केवल राय लेना नहीं, बल्कि सहमति प्राप्त करना है। इस व्यवस्था के तहत CJI को निर्णय लेने में दो वरिष्ठतम जजों का सहयोग अनिवार्य कर दिया गया, जिससे निर्णय अधिक संस्थागत और सामूहिक बन गया।
- तीसरा न्यायाधीश मामला (1998): राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए एक संवैधानिक प्रश्न के जवाब में सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली को और मजबूत किया। पांच सदस्यीय कॉलेजियम का गठन किया गया, जिसमें CJI के साथ चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को शामिल किया गया। यह फैसला कॉलेजियम की संरचना को व्यापक बनाकर निर्णय प्रक्रिया में अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए लिया गया था।
कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) से संबंधित विवाद और चुनौतियाँ
- कार्यपालिका का पूर्ण बहिष्करण: कॉलेजियम प्रणाली में कार्यपालिका को पूरी तरह से नियुक्ति प्रक्रिया से बाहर रखा गया है, जिससे यह एक बंद प्रणाली बन गई है। कुछ न्यायाधीश गुप्त रूप से अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, इसके चलते योग्य उम्मीदवारों की उपेक्षा और गलत उम्मीदवारों का चयन होने की आशंका बढ़ जाती है।
- पक्षपात और भाई-भतीजावाद: कॉलेजियम में किसी भी पद पर नियुक्ति के लिए कोई ठोस मानदंड निर्धारित नहीं है, जिससे भाई-भतीजावाद और पक्षपात की संभावना बढ़ जाती है। यह न्यायिक प्रणाली की पारदर्शिता को कम करता है। बिना पारदर्शिता के, व्यक्तिगत संबंधों और प्रभाव के आधार पर निर्णय होने की आशंका बनी रहती है।
- क्लोज़-डोर मैकेनिज़्म (Closed-Door Mechanism): कॉलेजियम प्रणाली को बंद दरवाजों के पीछे होने वाली प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। इसकी कार्यवाही का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं रखा जाता, जिससे जनता को यह पता नहीं चल पाता कि निर्णय कैसे और क्यों लिए गए। निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी से आलोचनाएँ बढ़ती हैं।
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का खारिज होना: संसद ने 2014 में 99वें संविधान संशोधन के तहत NJAC की स्थापना की थी ताकि न्यायिक नियुक्ति में कार्यपालिका की भी भागीदारी हो। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा मानते हुए निरस्त कर दिया। इस फैसले ने कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की जरूरत को और अधिक बढ़ा दिया है।
- जवाबदेही का अभाव: कॉलेजियम प्रणाली में यह तय नहीं है कि नियुक्ति प्रक्रिया कब पूरी होगी। देरी से न्यायालयों में रिक्त पद बढ़ते हैं, जिससे न्यायिक प्रक्रियाओं में बाधा उत्पन्न होती है। जवाबदेही की कमी से न्यायिक संस्थाओं में लोगों का विश्वास कमजोर होता है।
आगे की राह
- कॉलेजियम की कार्यवाही का आधिकारिक रिकॉर्ड रखना अनिवार्य होना चाहिए। चयन के मानदंड स्पष्ट हों और सार्वजनिक किए जाएं ताकि यह पता चल सके कि किसी विशेष उम्मीदवार को क्यों चुना गया। इससे न्यायपालिका में जनता का विश्वास बढ़ेगा।
- कॉलेजियम की सहायता के लिए एक स्वतंत्र सचिवालय की आवश्यकता है जो न्यायाधीशों की योग्यता, उपलब्धि और पृष्ठभूमि का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कर सके।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखते हुए कार्यपालिका को सीमित भूमिका दी जा सकती है। इससे नियुक्ति प्रक्रिया में संतुलन और जवाबदेही का समावेश होगा। यह संतुलन अन्य लोकतांत्रिक देशों की तर्ज पर अपनाया जा सकता है।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी से निपटने के लिए कॉलेजियम को एक निश्चित समय सीमा में नियुक्ति प्रक्रिया पूरी करनी चाहिए ताकि न्यायालयों में लंबित मामलों का बोझ कम हो सके।
- कॉलेजियम के सदस्यों को नियुक्ति के दौरान आपसी सहमति के बजाय निष्पक्षता और योग्यता पर जोर देना चाहिए। एक मजबूत और निष्पक्ष न्यायपालिका के लिए व्यक्तिगत संबंधों के बजाय संस्थागत अखंडता पर ध्यान देना जरूरी है।
UPSC पिछले वर्षों के प्रश्न (PYQs) प्रश्न (2019): निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 (b) केवल 2 (c) दोनों 1 और 2 दोनों (d) न तो 1 और न ही 2 उत्तर: (b) प्रश्न (2017): भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014’ पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। |
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