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पंचायती राज व्यवस्था में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के समक्ष चुनौतियाँ

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संदर्भ:

पंचायती राज मंत्रालय की एक समिति (पूर्व खान सचिव सुशील कुमार की अध्यक्षता में) की रिपोर्ट में बताया गया है कि महिला जनप्रतिनिधियों को स्वतंत्र रूप से अपने अधिकारों का उपयोग करने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

पंचायती राज व्यवस्था में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के समक्ष चुनौतियाँ :

  1. पितृसत्तात्मक मानसिकता और सरपंच पति सिंड्रोम:
    • कई जगहों पर पति, पिता या भाई ही असली निर्णयकर्ता होते हैं, जिससे महिलाएँ केवल नाममात्र की प्रतिनिधि बनकर रह जाती हैं।
    • इसे ‘सरपंच पति सिंड्रोम’ कहा जाता है, जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में व्यापक रूप से देखा जाता है।
  2. राजनीतिक प्रशिक्षण और जागरूकता की कमी:
    • कई महिलाओं को शासन प्रणाली, वित्तीय योजना और नीतिगत फैसलों की पर्याप्त जानकारी नहीं होती।
    • इससे उनकी निर्णय लेने की क्षमता कमजोर होती है, और वे पुरुषों या नौकरशाही पर निर्भर हो जाती हैं।
  3. नौकरशाही और पुरुष नेताओं का विरोध:
    • कई अफसर महिला नेताओं को गंभीरता से नहीं लेते और उन्हें अयोग्य समझते हैं।
    • इसका असर धन आवंटन और कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन पर पड़ता है, जिससे महिला नेतृत्व कमजोर होता है।
  4. आर्थिक निर्भरता और वित्तीय सशक्तिकरण की कमी:
    • ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक निर्भरता पुरुषों पर अधिक होती है, जिससे वे स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर पातीं।
    • वित्तीय संसाधनों और माइक्रो-क्रेडिट योजनाओं तक सीमित पहुँच उनके स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता को कमजोर कर देती है।
  5. लैंगिक हिंसा और धमकियाँ:
    • ग्रामीण क्षेत्रों में महिला राजनेताओं को डराने-धमकाने, अपशब्द कहने और कभी-कभी शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है।
    • विरोधी पुरुष नेता या प्रभावशाली जातीय समूह महिलाओं को राजनीति से बाहर करने की कोशिश करते हैं, और कई मामलों में उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया जाता है।
  6. कार्य और घरेलू जिम्मेदारियों का दोहरा बोझ:
    • महिलाएँ अपने राजनीतिक कार्यों और घरेलू जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाने में संघर्ष हैं।
    • समाज उनसे घरेलू कार्य, बच्चों की देखभाल और खेती-किसानी की जिम्मेदारी निभाने की अपेक्षा करता है, जिससे उनके पास शासन संबंधी कार्यों के लिए कम समय बचता है।
  7. सामाजिक और जातिगत भेदभाव:
    • दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से आने वाली महिला नेताओं को दोहरी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
    • उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा जैसे राज्यों में यह समस्या अधिक देखी जाती है, जहाँ जातिगत भेदभाव महिला नेतृत्व को और भी कठिन बना देता है।

समाधान के उपाय

  1. नीतिगत हस्तक्षेप (Policy Interventions):
    • निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों (EWRs) के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों को मजबूत किया जाए।
    • उन्हें कानूनी अधिकारों और शासन से संबंधित जागरूकता दी जाए।
  2. संरचनात्मक सुधार (Structural Reforms):
    • महिला आरक्षण की अवधि को बढ़ाया जाए ताकि नेतृत्व में निरंतरता बनी रहे।
    • इससे महिलाओं को दीर्घकालिक रूप से प्रभावी नेतृत्व करने का अवसर मिलेगा।
  3. उदाहरणात्मक दंड (Exemplary Penalties):
    • उन पुरुष रिश्तेदारों पर सख्त कार्रवाई हो, जो महिला प्रतिनिधियों की जगह पर शासन चलाते हैं।
    • ‘सरपंच पति सिंड्रोम’ को रोकने के लिए कड़े कानून लागू किए जाएं।
  4. जागरूकता अभियान (Awareness Campaigns):
    • सभी स्तरों पर लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए अभियान चलाए जाएं।
    • समाज में महिलाओं की भागीदारी को सामान्य बनाने के लिए सकारात्मक संदेश फैलाए जाएं।

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