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पश्चिमी घाट को एक पारिस्थितिकीय धरोहर के रूप में संरक्षित करने हेतु भारत सरकार ने छठी मसौदा अधिसूचना जारी की है। इस अधिसूचना में लगभग 56,825.7 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को पारिस्थितिकीय-संवेदनशील क्षेत्र (ESA) घोषित करने का प्रस्ताव है, जो गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में फैला हुआ है। इस क्षेत्र को खनन, निर्माण जैसी गतिविधियों से बचाकर जैव विविधता की रक्षा करना इसका मुख्य उद्देश्य है।
पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र (ESA) का महत्व:
ईएसजेड घोषित करने का उद्देश्य संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों को संरक्षित करना है। यह क्षेत्र अक्सर दुर्लभ या संकटग्रस्त प्रजातियों और प्राकृतिक संसाधनों का निवास स्थान होते हैं। 2002 में निर्णय लिया गया था कि संरक्षित क्षेत्रों के आसपास के क्षेत्र में “शॉक एब्जॉर्बर” के रूप में ईएसजेड को अधिसूचित किया जाए ताकि जैव विविधता को बढ़ावा मिल सके।
पश्चिमी घाट का पर्यावरणीय महत्व:
- भू-स्खलन प्रवणता: पश्चिमी घाट, हिमालय के बाद भारत का दूसरा सबसे अधिक भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र है।
- जैव विविधता हॉटस्पॉट: यह जैव विविधता के आठ वैश्विक हॉटस्पॉट्स में से एक है। यहां कई स्थानिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जैसे कि नीलगिरि तहर और शेर-पूंछ वाला मैकाक।
- जल संसाधन: पश्चिमी घाट भारत के कई नदियों का स्रोत है, जिनसे लगभग 245 मिलियन लोगों को जल आपूर्ति होती है।
संरक्षण की आवश्यकता:
खनन और निर्माण कार्यों ने पश्चिमी घाट के पारिस्थितिक संतुलन को प्रभावित किया है, जिसके चलते मिट्टी का क्षरण और पहाड़ी स्थिरता का ह्रास हुआ है। 2012 में, पश्चिमी घाट को उसकी जैव विविधता और पारिस्थितिकी महत्व के कारण यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
समितियों की सिफारिशें:
- गाडगिल रिपोर्ट (2011):
- सम्पूर्ण पश्चिमी घाट को ESA घोषित करने की सिफारिश।
- त्रिस्तरीय वर्गीकरण के आधार पर क्षेत्र को प्रतिबंधित किया गया।
- संरक्षण प्राधिकरण की स्थापना का सुझाव।
- कस्तूरीरंगन रिपोर्ट (2013):
- केवल 37% क्षेत्र को ESA घोषित करने की सिफारिश।
- संवेदनशील क्षेत्रों में विनियमित विकास पर जोर दिया।
- आर्थिक गतिविधियों और टिकाऊ आजीविका को संतुलित करने का प्रयास।
राज्य की प्रतिक्रिया:
अधिसूचना पर विभिन्न राज्यों ने आपत्तियां उठाई हैं। महाराष्ट्र और गोवा ने ESA की सीमा कम करने की मांग की है। कर्नाटक ने इस अधिसूचना को वापस लेने का अनुरोध किया है, क्योंकि इससे आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र (ESA) के बारे में:परिभाषा: कानूनी ढांचा: पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्रों का प्रबंधन भारत के पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत किया जाता है। इसके अलावा, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा जारी की गई राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2002-2016) में इन क्षेत्रों का उल्लिखित किया गया है। यह योजना जैव विविधता की रक्षा और वन्यजीवों के संरक्षण के लिए आवश्यक रणनीतियों का पालन करती है। मूल (Origin): · पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्रों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य संरक्षित क्षेत्रों (जैसे राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभयारण्यों) के आसपास के क्षेत्रों में बफर जोन प्रदान करना था, ताकि इन संरक्षित क्षेत्रों की जैविक विविधता पर मानवीय गतिविधियों का प्रतिकूल प्रभाव कम किया जा सके। · पश्चिमी घाट के जैव विविधता के संरक्षण के लिए, गाडगिल समिति (Ecology Expert Panel) और कस्तूरीरंगन समिति ने इन क्षेत्रों को “पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र” के रूप में नामित करने की सिफारिश की थी, विशेष रूप से पश्चिमी घाट जैसे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्रों में। इन समितियों ने जैव विविधता संरक्षण के दृष्टिकोण से इन क्षेत्रों के नामकरण की आवश्यकता को महसूस किया। ESA में गतिविधियाँ:
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निष्कर्ष: पश्चिमी घाट का संरक्षण आवश्यक है, लेकिन वहां निवास करने वाले लोगों की आजीविका और विकास की भी जरूरत है। इसके लिए नीतिगत संतुलन आवश्यक है ताकि आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ चल सके।
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