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वैवाहिक अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

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संदर्भ:

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना (धारा 9, हिंदू विवाह अधिनियम) और भरण-पोषण (धारा 125, दंड प्रक्रिया संहिता) से संबंधित कार्यवाही स्वतंत्र हैं और एक-दूसरे से जुड़ी नहीं हैं।

वैवाहिक अधिकार क्या हैं?

  1. परिभाषा: वैवाहिक अधिकार विवाह से उत्पन्न अधिकार हैं, जो पति या पत्नी को एक-दूसरे के साथ रहने (संगति) का अधिकार प्रदान करते हैं।
  2. कानूनी मान्यता:
    • इन अधिकारों को निम्नलिखित में मान्यता दी गई है:
      • व्यक्तिगत कानून: विवाह, तलाक आदि से संबंधित।
      • फौजदारी कानून: जीवनसाथी को भरण-पोषण और गुजारा भत्ता प्रदान करने की आवश्यकता।
  3. हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9:
    • संगति के अधिकार (Consortium) को मान्यता देती है।
    • इस अधिकार की रक्षा करते हुए किसी भी जीवनसाथी को इसे लागू करने के लिए न्यायालय में जाने की अनुमति देती है।

वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना (Restitution of Conjugal Rights):

  1. अर्थ:
    • वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना का मतलब है दंपत्ति के बीच पूर्व में विद्यमान वैवाहिक संगति और दायित्वों को बहाल करना।
    • इसका उद्देश्य विवाह की पवित्रता बनाए रखना और साथ रहने को प्रोत्साहित करना है।
  2. वैवाहिक अधिकारों की उत्पत्ति:
    • यह अवधारणा वर्तमान में हिंदू व्यक्तिगत कानून में संहिताबद्ध है, लेकिन इसकी जड़ें औपनिवेशिक काल और धार्मिक कानून (Ecclesiastical Law) में हैं।
    • इसी प्रकार के प्रावधान मुस्लिम व्यक्तिगत कानून और क्रिश्चियन फैमिली लॉ को नियंत्रित करने वाले डिवोर्स एक्ट, 1869 में भी हैं।
  3. कानूनी प्रावधान:
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (धारा 9): पीड़ित जीवनसाथी न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है, यदि दूसरा जीवनसाथी बिना उचित कारण उनकी संगति से दूर हो गया हो।
  4. न्यायालय की भूमिका:
    • न्यायालय दावों की सत्यता की जांच करता है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि आदेश जारी करने से पहले कोई कानूनी बाधा न हो।

वैवाहिक अधिकारों की कानूनी मान्यता:

  • व्यक्तिगत कानूनों में संहिताबद्ध: वैवाहिक अधिकार विवाह और पारिवारिक संबंधों को नियंत्रित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों में मान्यता प्राप्त हैं।
  • मुख्य प्रावधान:
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (धारा 9): यदि कोई जीवनसाथी बिना उचित कारण दूसरे की संगति से दूर हो जाता है, तो दूसरा जीवनसाथी अदालत में पुनर्स्थापना के लिए याचिका दायर कर सकता है।
    • मुस्लिम व्यक्तिगत कानून: वैवाहिक अधिकारों को मान्यता देता है और पुनर्स्थापना के लिए याचिका की अनुमति देता है।
    • क्रिश्चियन कानून (डिवोर्स एक्ट, 1869): ईसाई विवाहों के लिए समान प्रावधान करता है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (धारा 125): भरण-पोषण का प्रावधान करता है, जिससे जीवनसाथी जो स्वयं को सहारा नहीं दे सकते, उन्हें वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित होती है, भले ही वैवाहिक अधिकार पूरे न हो रहे हों।

महत्वपूर्ण न्यायिक मामले:

  1. सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (1984):
    • सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 को बरकरार रखा।
    • यह कहा गया कि यह प्रावधान वैवाहिक टूटन को रोकने में सहायक है।
  2. त्रिपुरा उच्च न्यायालय का निर्णय (2017): यह कहा गया कि वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के आदेश का पालन न करना पत्नी को भरण-पोषण प्राप्त करने से स्वतः अयोग्य नहीं बनाता।
  3. XYZ बनाम ABC (2023): कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि पत्नी द्वारा वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना के आदेश का पालन न करना तलाक का आधार हो सकता है।

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