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घरेलू कामगार संरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट

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संदर्भ:

घरेलू कामगार संरक्षण: सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से घरेलू श्रमिकों, विशेष रूप से महिलाओं, को शोषण से बचाने के लिए कानून बनाने का आग्रह किया है। अदालत ने विभिन्न मंत्रालयों के विशेषज्ञों को शामिल करते हुए एक अंतर-मंत्रालयी समिति गठित करने का निर्देश दिया है, जो घरेलू श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कानूनी ढांचे की आवश्यकता पर विचार करेगी।

घरेलू श्रमिकों की संवेदनशीलता (घरेलू कामगार संरक्षण):

  1. महत्वपूर्ण श्रम कानूनों से बाहर: न्यूनतम वेतन अधिनियम और समान पारिश्रमिक अधिनियम जैसे प्रमुख श्रम कानूनों के दायरे में नहीं आते।
  2. कानूनी असमानता: कुछ राज्यों में नियम हैं, लेकिन कोई समान राष्ट्रीय कानून नहीं है।
  3. हाशिए के समुदायों पर प्रभाव: यह कार्यबल मुख्य रूप से हाशिए के समुदायों और प्रवासी मजदूरों से आता है, जिससे उनकी संवेदनशीलता और अधिक बढ़ जाती है

सुप्रीम कोर्ट का घरेलू श्रमिकों पर दृष्टिकोण:

  1. कानूनी आवश्यकता की समीक्षा: केंद्र सरकार को घरेलू श्रमिकों के लिए कानून की आवश्यकता पर विचार करने का निर्देश।
  2. अंतर-मंत्रालयी समिति: श्रमिकों के कानूनी अधिकारों के लिए एक रूपरेखा तैयार करने का आदेश।
  3. कानूनी संरक्षण की कमी: न्यूनतम वेतन अधिनियम और समान पारिश्रमिक अधिनियम जैसे कानूनों से बाहर।
  4. असमान वेतन संरचना: एक ही क्षेत्र में भी वेतन में भारी अंतर पाया गया।
  5. सार्वभौमिक कानून की जरूरत: एक समान राष्ट्रीय कानून बनाने पर जोर, जो सभी राज्यों पर लागू हो

चुनौतियाँ और न्यायिक हस्तक्षेप:

  1. ILO कन्वेंशन 189:
    • भारत ने इस वैश्विक मानक को अभी तक अनुमोदित नहीं किया
    • यह उचित वेतन, सामाजिक सुरक्षा और शोषण से सुरक्षा की गारंटी देता है।
  2. न्यायिक आदेश और प्लेसमेंट एजेंसियाँ: सुप्रीम कोर्ट ने प्लेसमेंट एजेंसियों का पंजीकरण अनिवार्य किया, लेकिन कमजोर प्रवर्तन के कारण श्रमिक अब भी असुरक्षित हैं।
  3. जटिल रोजगार संरचना: घरेलू कार्य आंशिक (Part-time) और पूर्णकालिक (Full-time) दोनों रूपों में होता है, जिससे समान सुरक्षा उपाय लागू करना मुश्किल हो जाता है।

राष्ट्रीय कानून की आवश्यकता:

  1. राज्य-स्तरीय असमानताएँ: कुछ राज्यों जैसे केरल और दिल्ली में नियम हैं, लेकिन कोई समान राष्ट्रीय कानून नहीं है।
  2. प्रवर्तन (Enforcement) की चुनौती: नियोक्ता घरेलू श्रमिकों का पंजीकरण नहीं कराते, जिससे रोजगार का प्रमाण जुटाना मुश्किल होता है।
  3. न्यायिक हस्तक्षेप: अदालतों ने प्लेसमेंट एजेंसियों के पंजीकरण और दस्तावेजीकरण के निर्देश दिए, लेकिन इन प्रयासों का सीमित प्रभाव पड़ा है।

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