संदर्भ:
दल-बदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law): हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि स्पीकर दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने में अनिर्णय दिखाते हैं, तो न्यायालय निष्क्रिय नहीं रह सकता। अदालत निर्देश जारी कर सकती है, जिसे यदि नजरअंदाज किया गया तो अनुच्छेद 142 के तहत विधि सम्मत कार्रवाई की जाएगी।
दल-बदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law) :
परिचय:
- दल–बदल विरोधी कानून (ADL) 1985 में 52वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा लागू हुआ, जिसके तहत दसवीं अनुसूची जोड़ी गई।
- उद्देश्य: अवसरवादी दल-बदल पर रोक लगाना, दल अनुशासन को बढ़ावा देना और स्थिर सरकार सुनिश्चित करना।
अयोग्यता के आधार:
- राजनीतिक दलों के सदस्य:
- यदि सदस्य स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता त्याग दे।
- यदि सदस्य पार्टी के व्हिप के विपरीत मतदान करे या अनुपस्थित रहे और 15 दिनों में पार्टी द्वारा क्षमा न किया जाए।
- स्वतंत्र सदस्य: चुनाव के बाद यदि कोई स्वतंत्र सदस्य किसी दल से जुड़ता है तो अयोग्य हो जाएगा।
- नामित सदस्य: यदि नामित सदस्य, सदन में नामांकन के 6 महीने बाद किसी राजनीतिक दल से जुड़ता है तो अयोग्य माना जाएगा।
- राजनीतिक दलों के सदस्य:
अपवाद:
- यदि पीठासीन अधिकारी (स्पीकर) अपनी सदस्यता छोड़ते हैं या पुनः प्राप्त करते हैं, तो उन पर यह कानून लागू नहीं होगा।
- यदि किसी दल का दो-तिहाई सदस्य किसी अन्य दल में विलय के लिए सहमत हो जाएं, तो अयोग्यता लागू नहीं होगी।
स्पीकर की भूमिका:
- स्पीकर, दसवीं अनुसूची के अंतर्गत अर्ध–न्यायिक (quasi-judicial) भूमिका में अयोग्यता पर निर्णय लेते हैं।
- कानून में स्पीकर के लिए निर्णय लेने की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, जिससे कई मामलों में लंबी देरी होती है।
- न्यायिक शक्ति: अनुच्छेद 142 के अंतर्गत, सुप्रीम कोर्ट पूर्ण न्याय के लिए आवश्यक आदेश दे सकता है, जिसमें संवैधानिक अधिकारियों को समयबद्ध कार्यवाही करने का निर्देश भी शामिल है।
दल-बदल विरोधी कानून की चुनौतियाँ:
- निश्चित समय–सीमा का अभाव: स्पीकर के निर्णय के लिए कोई तय समय-सीमा नहीं होने से कई समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- दल–बदल विरोधी कानून (1985) का उल्लंघन: यह कानून पार्टी बदलने से होने वाली अस्थिरता रोकने के लिए बना था, लेकिन निर्णय में देरी होने से विधायक पूरा कार्यकाल लाभ उठाते रहते हैं, जो कानून की भावना के खिलाफ है।
- जनादेश की अवहेलना: निर्णय में देरी से पार्टी छोड़ने वाले सदस्य सदन में बने रहते हैं, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होती है।
- राजनीतिक अवसरवाद और खरीद–फरोख्त को बढ़ावा: तत्काल कार्रवाई के अभाव में राजनीतिक सौदेबाजी बढ़ती है। उदाहरण: महाराष्ट्र (2022) में महीनों तक दल-बदल मान्य रखा गया।
- सत्ताधारी दल को अनुचित लाभ: स्पीकर अक्सर सरकार के पक्ष में होते हैं, जिससे विपक्ष की ताकत कृत्रिम रूप से घट जाती है और सत्ता पक्ष को फायदा मिलता है।
- लोकतांत्रिक संस्थानों में विश्वास कम होता है: जब स्पीकर निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं करते, तो जनता का लोकतांत्रिक व्यवस्था से भरोसा कम होने लगता है।