Desert Soilification Technology
संदर्भ:
पहली बार राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय (CUoR) के शोधकर्ताओं ने पश्चिमी राजस्थान की शुष्क भूमि में गेहूं की सफल खेती की है। यह उपलब्धि डेजर्ट सॉयलिफिकेशन टेक्नोलॉजी के प्रयोग से संभव हुई है, जो सूखा प्रभावित क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
डेजर्ट सॉयलिफिकेशन टेक्नोलॉजी (Desert Soilification Technology):
परिचय (Overview):
- यह एक उन्नत जैव-प्रौद्योगिकी विधि है, जो बंजर रेगिस्तानी रेत को मृदा जैसी सामग्री में बदल देती है।
- इसका उद्देश्य रेगिस्तानीकरण पर रोक, शुष्क क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता बढ़ाना और सतत भूमि उपयोग सुनिश्चित करना है।
तकनीक (Technology)
- इसमें बायोफॉर्म्युलेशन और पॉलिमर का प्रयोग किया जाता है, जो ढीली रेत को बाँधकर मिट्टी जैसी संरचना प्रदान करते हैं।
- इससे रेत की बनावट सुधरती है और उसमें जल धारण क्षमता (Water Retention) आती है।
कार्यप्रणाली (How Does It Work?)
- पॉलिमर–आधारित बायोफॉर्म्युलेशन: प्राकृतिक पॉलिमर और सूक्ष्मजीव (microbial) तैयारियाँ रेत पर डाली जाती हैं।
- रेत कणों का क्रॉस–लिंकिंग (Cross-Linking of Sand Particles): बायोपॉलिमर रेत के कणों को जोड़कर एकसंरचनात्मक नेटवर्क बनाते हैं, जिससे मिट्टी जैसी परत तैयार होती है।
- जल धारण क्षमता (Water Retention): यह संरचना पानी को पकड़कर रखती है, जिससेसिंचाई की जरूरत कम हो जाती है और रेत से पानी का तेजी से रिसाव (percolation) रुकता है।
- सूक्ष्मजीवी सहयोग (Microbial Boost): लाभकारी सूक्ष्मजीव पौधों कीवृद्धि बढ़ाते हैं, मिट्टी की उर्वरता सुधारते हैं और फसलों की तनाव सहन क्षमता (stress resistance) बढ़ाते हैं।
- मिट्टी जैसी विशेषताएँ (Soil-like Properties): संशोधित रेत में पोषक तत्व धारण क्षमता, सूक्ष्मजीवों का विकास औरसतत फसल उत्पादन संभव हो जाता है।
रेगिस्तानी मिट्टीकरण तकनीक की प्रमुख विशेषताएँ:
- रेत से मिट्टी में बदलाव– बायो-पॉलीमर की मदद से ढीली रेत को आपस में जोड़कर मिट्टी जैसी संरचना बनाई जाती है, जिसमें जड़ों को पकड़ने और हवा के लिए जगह होती है।
- जल धारण क्षमता– यह तकनीक रेत में नमी बनाए रखती है और सिंचाई की ज़रूरत को लगभग 30–40% तक कम करती है।
- सूक्ष्मजीवों की बढ़ोतरी– विशेष बायो-फॉर्मुलेशन लाभकारी सूक्ष्मजीवों को सक्रिय करता है, जिससे पोषक तत्वों का चक्र सुधरता है और फसलों की सहनशीलता बढ़ती है।
- फसलों में उपयोग– इसे गेहूँ, बाजरा, ग्वारगम और चने पर सफलतापूर्वक आज़माया गया है। अब इसे मिलेट्स और मूंग पर भी लागू किया जा रहा है।
- कम लागत वाली खेती– सिंचाई के चक्र घटकर (गेहूँ में सामान्यतः 5–6 बार की जगह 3–4 बार) खेती सस्ती और आसान हो जाती है।
- जलवायु अनुकूलता– यह तकनीक पानी की कमी और मरुस्थलीकरण वाले क्षेत्रों में टिकाऊ खाद्य उत्पादन का साधन देती है।
महत्व:
- कृषि उत्पादकता: बंजर रेगिस्तान को खेती योग्य भूमि में बदलकर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित।
- जल दक्षता: कम सिंचाई (3–4 चक्र) में उच्च उत्पादन, शुष्क क्षेत्रों के लिए अहम।
- सस्टेनेबिलिटी: मरुस्थलीकरण रोकने और बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने का जैव-प्रौद्योगिकीय समाधान।
- स्केलेबिलिटी: बाजरा, मूंग जैसी फसलों पर भी लागू करने की संभावना।
- सामाजिक प्रभाव: खाद्य सुरक्षा व सतत कृषि के लिए विज्ञान का व्यावहारिक समाधान।