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1975 में भारत में राष्ट्रीय आपातकाल

national emergency

इंदिरा गाँधी ने 26 जून, 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा कि देश में जिस तरह का माहौल (सेना, पुलिस और अधिकारियों के भड़काना) एक व्यक्ति अर्थात जयप्रकाश नारायण के द्वारा बनाया गया है, उसमें यह जरूरी हो गया है कि देश में आपातकाल लगाया (National Emergency in India) जाए ताकि देश की एकता और अखंडता की रक्षा की जा सके।

‘आपातकाल’ क्या होता है?

आपातकाल भारतीय संविधान में एक ऐसा प्रावधान है, जिसका इस्तेमाल तब किया जाता है, जब देश को किसी आंतरिक, बाहरी या आर्थिक रूप से किसी तरह के खतरे की आशंका होती है।

आपातकाल की जरूरत क्यों है?

संविधान निर्माताओं ने आपातकाल जैसी स्थिति की कल्पना ऐसे वक्त को ध्यान में रखकर की थी, जिसमें देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा खतरे में हो। इसी को ध्यान में रखकर कुछ ऐसे प्रावधान बनाए गए, जिसके तहत केंद्र सरकार बिना किसी रोक टोक के गंभीर फैसले ले सके।

उदाहरण के लिए अगर कोई पड़ोसी देश हम पर हमला करता है, तो हमारी सरकार को जवाबी हमले के लिए संसद में किसी भी तरह का बिल पास न कराना पड़े। चूंकि हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र है, इसलिए हमारे देश को किसी भी देश से युद्ध करने के लिए पहले संसद में बिल पास कराना होता है। लेकिन आपात स्थितियों के लिए संविधान में ऐसे प्रावधान हैं, जिसके तहत केंद्र सरकार के पास ज्यादा शक्तियां आ जाती हैं और केंद्र सरकार अपने हिसाब से फैसले लेने में समर्थ हो जाती है। केंद्र सरकार को शक्तियां देश को आपातकालीन स्थिति से बाहर निकालने के लिए मिलती हैं।

1975 आपात काल की पृष्ठभूमि :

12 जून 1975 को इमरजेंसी की पटकथा लिखी गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इस दिन इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया था तथा साथ ही 6 साल के लिए किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया।

इंदिरा गाँधी के खिलाफ राय बरेली से चुनाव लड़ने वाले राज नारायण ने यह याचिका दायर की थी। आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया है।

24 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा कि जब तक कोर्ट में मामला चलेगा तब तक इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती हैं। लेकिन उन्हें संसद में किसी भी चर्चा और बिल पर वोट करने का अधिकार नहीं होगा।

इसी के अगले दिन यानी 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने नई दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकार के खिलाफ बड़ी रैली बुलाई थी।

देश में तब महंगाई और भ्रष्ट्राचार के मुद्दे पर लोगों में गुस्सा पनप रहा था। जयप्रकाश पूरे देश में घूम-घूमकर सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।

1970 के दशक की इन चार बड़ी वजहों के बाद इंदिरा गाँधी ने लगाया आपातकाल

गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन (1973)

अहमदाबाद में एल डी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के छात्र फीस में बढ़ोतरी के विरोध में दिसंबर 1973 में हड़ताल पर चले गए थे। इस हड़ताल के ठीक एक महीने बाद गुजरात विश्वविद्यालय के छात्रों ने राज्य की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया। इस पूरे आंदोलन को ‘नवनिर्माण आंदोलन’ या उत्थान के लिए आंदोलन का नाम दिया गया। उस वक्त गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल थे।

जेपी आंदोलन (1974)

गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से प्रेरित होकर बिहार में भी इसी तरह का आंदोलन शुरू हो गया। मार्च 1974 में बिहार में एक भी एक छात्र आंदोलन शुरू। इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए विपक्षी पार्टियों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सबसे पहले इस विरोध का नेतृत्व 71 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण ने किया। जो जेपी के नाम से जाने जाते थे। इसलिए इस आंदोलन को जेपी आंदोलन कहा जाता है। बिहार में दूसरा विरोध प्रदर्शन उस वक्त हुआ, जब इंदिरा गांधी ने बिहार विधानसभा के निलंबन को स्वीकार नहीं किया था। इतिहासकारों का मानना है कि आपातकाल घोषित करने के लिए जेपी आंदोलन महत्वपूर्ण था।

रेलवे हड़ताल (1974)

बिहार में जब जेपी आंदोलन की आग लगी हुई थी तो उसी दौरान समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में रेलवे की हड़ताल की घोषणा की गई थी। जिससे पूरे देश में रेल सेवा प्रभावित हुई थी। मई 1974 में शुरू हुआ रेलवे हड़ताल तीन हफ्तो तक चला था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब में लिखा है, इस आंदोलन में करीब एक लाख रेलकर्मियों ने हड़ताल का सर्मथन किया था। लेकिन इंदिरा गांधी की सरकार प्रदर्शनकारियों पर भारी पड़ी, हजारों रेलवे कर्मचारियों को गिरफ्तार किया गया और उनके परिवारों को उनके रेलवे क्वार्टर से बाहर कर दिया गया था।

राज नारायण फैसला

देशभर में विपक्षी दलों, ट्रेड यूनियनों और छात्रों द्वारा जारी विरोध प्रर्दशन के बीच इंदिरा गांधी के लिए समाजवादी नेता राज नारायण द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट में दायर याचिका एक नये खतरे के तौर पर सामने आया। समाजवादी नेता राज नारायण 1971 के रायबरेली संसदीय चुनावों में इंदिरा गांधी से हार गए थे। इलाहाबाद हाई कोर्ट में दायर अपनी याचिका में राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर भ्रष्ट आचरण और गलत तरीकों से चुनाव जीतने का आरोप लगाया गया था। राज नारायण ने आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने अनुमति से अधिक पैसा खर्च किया और सरकारी अधिकारियों द्वारा उसका चुनाव अभियान चलाया गया था।

इलाहाबाद हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान 19 मार्च 1975 को इंदिरा गांधी अपना बयान देने पहुंची। इंदिरा गांधी अदालत में गवाही देने वाली भारत की पहली प्रधानमंत्री बनी। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सिन्हा ने इंदिरा गांधी के संसद के चुनाव को शून्य घोषित करने का फैसला पढ़ा। हालांकि इंदिरा गांधी ने इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 20 दिनों का समय मांगा।

जिसके बाद 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर सशर्त रोक लगा दी थी और फैसला दिया कि इंदिरा गांधी संसद में उपस्थित हो सकती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साथ में ही कहा, जब तक अदालत ने उनकी अपील पर फैसला नहीं सुनाती है, तब तक उन्हें वोट देने की अनुमति नहीं दी जाएगी। जिसके बाद जेपी आंदोलन के नेताओं ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की। कहा जाता है कि राज नारायण याचिका पर सुनवाई भी इमरजेंसी के पीछे की अहम वजह थी।

1975 के आपातकाल के परिणाम

  • नागरिक स्वतंत्रता का निलंबन: आपातकाल के सबसे उल्लेखनीय परिणामों में से एक भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का निलंबन था। सरकार ने प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम कर दिया और हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को बिना मुकदमे के हिरासत में ले लिया।
  • राजनीतिक दमन: आपातकाल की विशेषता व्यापक राजनीतिक दमन थी। विपक्षी दलों और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया और असहमति को दबा दिया गया। जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई सहित कई विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सरकार ने बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान भी शुरू किया, जिसे कठोर उपायों के साथ लागू किया गया।
  • सत्ता का केंद्रीकरण: आपातकाल के दौरान केंद्र सरकार की शक्ति में काफी वृद्धि हुई थी। उस समय प्रधान मंत्री, इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के पास अत्यधिक अधिकार थे, और निर्णय लेने की प्रक्रिया केंद्रीकृत थी। राज्यों की स्वायत्तता को कमज़ोर कर दिया गया, और सरकार राज्य सरकारों को बर्खास्त कर सकती थी और राष्ट्रपति शासन के माध्यम से सीधे नियंत्रण ग्रहण कर सकती थी।
  • आर्थिक नीतियां: आपातकालीन अवधि में विभिन्न आर्थिक नीतियों का कार्यान्वयन देखा गया। सरकार ने उद्योगों और व्यापार पर सख्त नियमों के साथ अधिक हस्तक्षेपवादी दृष्टिकोण अपनाया। इसने कीमतों को नियंत्रित करने और मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के उपाय भी पेश किए। हालाँकि, इनमें से कुछ नीतियों को आर्थिक विकास और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा।
  • राजनीतिक प्रतिक्रिया और चुनाव: आपातकाल के कारण समाज के विभिन्न वर्गों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। नागरिक समाज संगठन, छात्र समूह और राजनीतिक कार्यकर्ता सरकार के खिलाफ लामबंद हो गए। विपक्षी दल, जो शुरू में दबे हुए थे, जनता पार्टी के बैनर तले एकजुट हुए और 1977 का आम चुनाव लड़ा। चुनावों में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी की निर्णायक हार हुई और जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाई।
  • लोकतंत्र को मजबूत बनाना: आपातकाल ने भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक स्वतंत्रता के महत्व की स्पष्ट याद दिलाई। इससे मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और शक्तियों के पृथक्करण पर नए सिरे से जोर दिया गया। इस अवधि के दौरान न्यायपालिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें ऐतिहासिक निर्णयों ने व्यक्तिगत अधिकारों की प्रधानता को बरकरार रखा। आपातकाल को अक्सर भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है, जो नियंत्रण और संतुलन के महत्व और लोकतांत्रिक संस्थानों की सुरक्षा के महत्व को मजबूत करता है।

कुल मिलाकर, 1975 के आपातकाल के परिणामों का भारतीय राजनीति, नागरिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक शासन पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह भारत के इतिहास में एक विवादास्पद अवधि बनी हुई है, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के महत्व की याद दिलाती है।

भारतीय संविधान में आपातकाल –

  • भारत में आपातकाल की स्थिति शासन की उस अवधि को संदर्भित करती है जिसे कुछ संकट स्थितियों के दौरान भारत के राष्ट्रपति द्वारा घोषित किया जा सकता है।
  • आपातकालीन प्रावधान भारत के संविधान के भाग XVIII में अनुच्छेद 352 से 360 तक शामिल हैं। ये प्रावधान केंद्र सरकार को किसी भी असामान्य स्थिति से प्रभावी ढंग से निपटने में सक्षम बनाते हैं।
  • निगमन के पीछे तर्कसंगतता देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की रक्षा करना है।
  • भारतीय संविधान निर्माताओं ने ऐतिहासिक अनुभवों और वैश्विक घटनाओं से सीख लेते हुए, राष्ट्र की सुरक्षा, अखंडता एवं स्थायित्त्व को जोखिम में डालने वाली असाधारण स्थितियों के निपटान के लिये आपातकालीन प्रावधानों को शामिल किया।
  • प्रशासनिक तंत्र के विफल होने पर एकात्मक प्रणाली में परिवर्तित होने की क्षमता को देखते हुए डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने भारतीय संघीय ढाँचे को अद्वितीय बताया।
  • संविधान के भाग-XVIII के तहत अनुच्छेद 352 से अनुच्छेद 360 तक उल्लिखित प्रावधान आपातकाल के दौरान सरकार को विशेष शक्तियाँ प्रदान करते हैं।
  • भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान जर्मनी के वाइमर संविधान से प्रेरित हैं।

आपातकाल के प्रकार:

  • राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) (अनुच्छेद 352)
  • राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356)
  • वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360)

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352):

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 352 राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) की घोषणा से संबंधित है।
  • यदि राष्ट्रपति का यह समाधान हो जाता है की गंभीर आपात विद्यमान है, जिससे युद्ध या बाह्य आक्रमण के कारण भारत अथवा उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा आपातकाल घोषित कर सकता है।
  • यह घोषणा कार्यपालिका को मौलिक अधिकारों को निलंबित करने की शक्तियाँ प्रदान करती है, जिससे सरकार को संकट का प्रभावी निपटान करने हेतु आवश्यक उपाय करने में सहायता मिलती है।
  • National Emergency की उद्घोषणा को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाना अनिवार्य है और इसे संसदीय अनुमोदन के माध्यम से रद्द किया अथवा बढ़ाया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 352 का प्रयोग एक असाधारण उपाय है और इसका उपयोग सत्ता के संभावित दुरुपयोग तथा लोकतांत्रिक सिद्धांतों के क्षरण संबंधी चिंता को जन्म देता है।

राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) की उद्घोषणा हेतु आधार:

युद्ध:

  • इसका आशय ऐसी स्थिति से है जहाँ भारत और किसी अन्य देश के साथ आधिकारिक तौर पर युद्धरत हो। इसमें राष्ट्रों के बीच सशस्त्र संघर्ष तथा शत्रुता शामिल है।

बाह्य आक्रमण:

  • बाह्य आक्रमण से तात्पर्य किसी विदेशी शक्ति द्वारा भारत पर आक्रमण से है। इसमें देश की संप्रभुता और अखंडता को खतरे में डालने वाला सैन्य आक्रमण अथवा किसी भी प्रकार का बाह्य खतरा शामिल हो सकता है।

सशस्त्र विद्रोह:

  • सशस्त्र विद्रोह के अंतर्गत देश के भीतर स्थापित सरकार के विरुद्ध विद्रोह अथवा प्रतिरोध शामिल होता है। इसका तात्पर्य सरकार के अधिकार को चुनौती देने के लिये जनसमूह द्वारा बल अथवा सशस्त्र का उपयोग है।

राष्ट्रीय आपातकाल की अवधि एवं अनुमोदन:

  • मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश के पश्चात केवल राष्ट्रपति ही राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) की उद्घोषणा कर सकता है।
  • राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा की आवश्यकता को लेकर आश्वस्त होने के पश्चात् मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को एक लिखित अनुरोध प्रेषित करता है।
  • मंत्रिमंडल के लिखित अनुरोध से सहमत होने के बाद राष्ट्रपति आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है। हालाँकि इस उद्घोषणा को एक माह के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना आवश्यक है।
  • यदि निचले सदन(लोकसभा) के सत्र में नहीं होने पर आपातकाल की उद्घोषणा की जाती है अथवा आपातकाल को मंज़ूरी दिये बिना उस महीने के भीतर भंग कर दिया जाता है, तो यह लोकसभा की दोबारा बैठक के 30 दिन बाद तक लागू रहता है, जब तक कि उच्च सदन (राज्यसभा) द्वारा इसे मंज़ूरी मिली होती है।
  • दोनों सदनों की मंज़ूरी के पश्चात् आपातकाल छह माह तक रहता है और इसे अनिश्चित काल तक बढ़ाया जा सकता है, किंतु जारी रखने के लिये प्रत्येक छह माह में इसे संसद द्वारा अनुमोदित किया जाना अनिवार्य होता है।

न्यायिक समीक्षा:

  • प्रारंभ में राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) न्यायिक समीक्षा से प्रतिरक्षित था। बाद में 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा इस प्रावधान में बदलाव किया गया। मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रीय आपातकाल को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 352(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की घोषणा की वैधता का आकलन करने की न्यायिक समीक्षा में कोई बाधा नहीं होनी चाहिये।
  • न्यायपालिका राष्ट्रपति की संतुष्टि की वैधता की जाँच कर सकती है।

राष्ट्रीय आपातकाल की समाप्ति:  

  • आपातकाल हटाने का निर्णय राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करता है।
  • आपातकाल को बनाए रखने की आवश्यकता और आधार के आलोक में राष्ट्रपति उद्घोषणा के माध्यम से आपातकाल को समाप्त कर सकता है।
  • यदि लोकसभा में साधारण बहुमत द्वारा कोई प्रस्ताव पारित किया जाता है जो आपातकाल को जारी रखने हेतु अस्वीकृति दर्शाता है, तो आपातकाल को अवश्य ही रद्द कर दिया जाना चाहिये।

आपातकाल की उद्घोषणा के प्रभाव:

  • राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान, अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार निलंबित कर दिये जायेंगे। किंतु, किसी भी स्थिति में इसका अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों पर कोई प्रभाव नही होगा।
  • अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट (ADM) जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) मामले में यह माना गया था कि राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान नज़रबंदी के विरुद्ध बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट का लाभ नहीं उठाया जा सकता है क्योंकि अनुच्छेद 21भी उस उद्घोषणा अवधि के दौरान निलंबित हो जाता है। हालाँकि बाद में इस फैसले को खारिज़ कर दिया गया।

राज्य आपातकाल (Article 356):

  • अनुच्छेद 355: प्रत्येक राज्य सरकारें संविधान के प्रावधानों का अनुपालन करें, यह सुनिश्चित करना केंद्र का कर्त्तव्य है।
  • अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार प्रदान करता है, यह मुख्यतः उसकी इस मान्यता पर निर्भर करता है कि राज्य में सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकती है।
  • यह प्रावधान किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में लागू किया जाता है, यह संघ को राज्य की शासन व्यवस्था संभालने की अनुमति प्रदान करता है।
  • राजनीतिक उद्देश्यों के लिये अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर चिंताएँ लंबे समय से विवाद और बहस का मुद्दा रही हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन के मनमाने उपयोग को नियंत्रित करने के लिये कुछ दिशानिर्देश निर्धारित किये हैं। एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामले में निर्दिष्ट फैसले द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने कई विकल्प प्रदान किये हैं। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार इन विकल्पों के समाप्त होने के बाद ही आपातकाल संबंधी शक्तियों का उपयोग केवल विशेष मामलों में हीं किया जाना चाहिये।

अनुमोदन एवं अवधि:

  • यदि राज्यपाल अथवा अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर राष्ट्रपति को निश्चय हो जाता है कि किसी राज्य को संविधान के अनुसार शासित नहीं किया जा सकता है, तो राज्यपाल राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
  • संसद द्वारा इस निर्णय को दो महीने के भीतर मंज़ूरी देना अनिवार्य है।
  • आपातकाल शुरू में छह माह तक रहता है किंतु प्रत्येक छह माह पर संसद की मंज़ूरी द्वारा इसे तीन वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।
  • 42वें संशोधन, 1976 द्वारा प्रारंभिक अवधि को बढ़ाकर एक वर्ष कर दिया गया, किंतु 44वें संशोधन, 1978 द्वारा इसे पुनः छह माह कर दिया गया।
  • मूल रूप से राष्ट्रपति शासन तीन वर्षों तक चल सकता है, जिसे विशिष्ट शर्तों के साथ एक सामान्य वर्ष तथा दो असाधारण वर्षों में विभाजित किया गया है।
  • वर्तमान समय में, जब तक कि कोई संवैधानिक संशोधन न किया जाए, इसे प्रत्येक बार छह माह के रूप में अधिकतम तीन वर्ष के लिये लिये बढ़ाया जा सकता है।

राज्य आपातकाल के प्रभाव:

  • राज्यपाल द्वारा प्रयोग की जाने वाली सभी शक्तियाँ राष्ट्रपति के पास होंगी।
  • राष्ट्रपति घोषणा करेगा कि संसद के पास राज्य की विधायी शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार होगा।
  • आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रपति उद्घोषणा के उद्देश्य को पूरा करने के लिये आवश्यक प्रावधान कर सकता है।

वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360):

  • अनुच्छेद 360 वित्तीय आपातकाल की घोषणा से संबंधित है।
  • यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाता है कि भारत अथवा उसके राज्यक्षेत्र के किसी भाग के वित्तीय स्थायित्त्व अथवा साख को खतरा है तो राष्ट्रपति वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता है।
  • अन्य दो प्रकार की आपात स्थितियों के विपरीत, भारत में आज तक कभी भी वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा नहीं की गई है।
  • वित्तीय आपातकाल के दौरान, राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों सहित सिविल सेवाओं में सेवारत सभी अथवा किसी भी वर्ग के व्यक्तियों के वेतन तथा भत्ते में कटौती का निर्देश दे सकता है
  • इस दौरान राज्यों के वित्तीय संसाधनों पर भी नियंत्रण एवं उनके कुशल प्रबंधन के लिये निर्देशित करने की शक्ति भी केंद्र सरकार के अंतर्गत आ जाती है।

वित्तीय आपातकाल के प्रभाव:

राज्य की स्वायत्तता में कमी:

  • राष्ट्रपति के पास किसी भी राज्य को वित्तीय आपातकाल के समय उचित समझे जाने वाले किसी भी वित्तीय औचित्य मानकों का पालन करने के लिये आदेश देने का अधिकार है।
  • इसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि वित्तीय आपातकाल के दौरान राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता कम हो जाती है और उन्हें राष्ट्रपति द्वारा जारी निर्देशों का पालन करना अनिवार्य होता है।

राज्य के वित्त पर केंद्र का नियंत्रण:

  • राष्ट्रपति राज्यों को राज्य के मामलों के संबंध में सेवारत सभी अथवा वर्ग विशेष के व्यक्तियों के वेतन तथा भत्ते में कटौती का निर्देश भी दे सकता है।
  • यह केंद्र सरकार को राज्यों के वित्तीय निर्णयों और व्ययों को नियंत्रित करने में मदद करता है।

संसदीय अनुमोदन:

  • वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा को दो महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना अनिवार्य है।
  • अनुमोदन नहीं होने की स्थिति में उद्घोषणा का प्रभाव समाप्त हो जाता है। हालाँकि ऐसी किसी भी उद्घोषणा को राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय रद्द किया जा सकता है अथवा उसमें बदलाव किया जा सकता है।

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