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निचली न्यायपालिका के समक्ष चुनौतियां (Challenges before the lower judiciary) | Apni Pathshala

Challenges before the lower judiciary

Challenges before the lower judiciary

संदर्भ:

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस स्तर पर बढ़ती अक्षमताओं, लंबित मामलों की अत्यधिक संख्या और प्रक्रियागत कठिनाइयों को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार देशभर की जिला अदालतों में लगभग 4.69 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं, जिससे न्याय तक समयबद्ध पहुँच बाधित हो रही है और मानवाधिकारों के हनन का जोखिम बढ़ रहा है।

निचली न्यायपालिका (Lower Judiciary) — क्या है?

  • निचली न्यायपालिका भारत की न्यायिक संरचना का वह स्तर है जहाँ अधिकांश दीवानी और आपराधिक मामलों की पहली सुनवाई होती है। इसे Subordinate Courts भी कहा जाता है। 
  • यह जनता और न्याय प्रणाली के बीच प्राथमिक संपर्क बिंदु के रूप में कार्य करती है और पूरी न्याय व्यवस्था की दक्षता का आधार मानी जाती है। 
  • निचली अदालतों में मुख्य रूप से जिला एवं सत्र न्यायालय, सिविल जज, ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, फैमिली कोर्ट, स्मॉल कॉज़ कोर्ट आदि शामिल होते हैं।
  • इन अदालतों का दायित्व साक्ष्य लेने, ट्रायल चलाने, जमानत, गिरफ्तारी, दंडादेश और दीवानी विवादों के निपटारे जैसी प्रक्रियाओं को पूरा करना होता है। भारत में लगभग 70–80% न्यायिक भार निचली अदालतों पर ही केंद्रित है।

निचली न्यायपालिका के गठन का संवैधानिक आधार:

  • अनुच्छेद 233–237: इन प्रावधानों में जिला न्यायाधीशों तथा अधीनस्थ न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति, पदोन्नति, नियंत्रण और सेवा-शर्तों को विनियमित किया गया है।
    • Article 233: जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा हाई कोर्ट की परामर्श से।
    • Article 234: अन्य अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं की नियुक्ति राज्य लोक सेवा आयोग और उच्च न्यायालय की भागीदारी से।
  • अनुच्छेद 235: अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण उच्च न्यायालय को सौंपा गया है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है।
  • अनुच्छेद 236–237: ये प्रावधान जिला न्यायाधीश शब्द की परिभाषा और न्यायिक सेवाओं को प्रशासनिक सेवाओं से अलग करने का ढांचा प्रदान करते हैं।

निचली न्यायपालिका के समझ चुनौतिया:

  • न्यायिक उत्पादकता में गिरावट: निचली अदालतों में एक बड़ी समस्या यह है कि न्यायिक अधिकारी मामूली प्रशासनिक कार्यों में अत्यधिक समय व्यतीत करते हैं। सुबह से दोपहर तक केस कॉलिंग, वकालतनामा स्वीकार करना, समन जारी करना, हलफनामे लेना जैसी प्रक्रियाएँ न्यायिक समय को कम कर देती हैं। परिणामस्वरूप वास्तविक सुनवाई के लिए सीमित समय उपलब्ध होता है।

  • न्यायिक प्रशिक्षण का अभाव: न्यायिक भर्ती प्रणाली में अब कई ऐसे उम्मीदवार शामिल होते हैं, जिनके पास प्रारंभिक न्यायिक अभ्यास का अनुभव नहीं होता। इससे आदेश लिखने, जटिल मामलों को समझने और अदालत संचालन की दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

  • जटिल प्रक्रियाएँ: कई बार विधायी सुधार तेजी लाने के उद्देश्य से किए जाते हैं, परंतु क्रियान्वयन में उलट प्रभाव दिखता है। Mandatory Pre-Suit Mediation (Section 12A, Commercial Courts Act)Mutual Consent Divorce में Cooling-off Period, नए Rent Act पर अस्पष्टता, इसके अतिरिक्त, CPC के कई प्रावधान अत्यधिक पुराने तथा तकनीकी हैं, जो निष्पादन कार्यवाही (Execution Proceedings) को वर्षों तक टालते रहते हैं। 

बेहतर कार्यान्वयन के लिए आवश्यक सुधार:

  • प्रशासनिक कार्यों का पृथक्करण: निचली अदालतों के न्यायाधीश वर्तमान में समन जारी करने और रिकॉर्ड संभालने जैसे कार्यों में अत्यधिक समय खोते हैं। एक अलग प्रशासनिक अधिकारी/कोर्ट स्थापित करना आवश्यक है, ताकि न्यायाधीश केवल सुनवाई और आदेश लिखने पर ध्यान दे सकें। इससे न्यायिक उत्पादकता बढ़ेगी।

  • न्यायिक प्रशिक्षण की मजबूती: नए न्यायाधीशों के लिए हाई कोर्ट पीठों में संरचित प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए। यहाँ वे आदेश–लेखन, कोर्ट प्रबंधन, तर्क–निर्माण और प्रक्रिया कानून की वास्तविक उपयोगिता सीख सकते हैं। 

  • प्रक्रियागत कानूनों का सरलीकरण: Code of Civil Procedure (CPC), विशेषतः Order XXI (Execution) के 100+ नियम, जटिल और विलंबकारी हैं। इनका सरलीकरण तथा तेज निष्पादन अदालतों की स्थापना लंबित मामलों के शीघ्र समाधान के लिए अत्यंत आवश्यक है। इनकी समय संबंधी सीमाओं को व्यवहारिक और लचीला बनाया जाना चाहिए।

  • प्रौद्योगिकी आधारित केस प्रबंधन: ई-फाइलिंग, स्वचालित केस लिस्टिंग, डिजिटल समन, वीडियो-आधारित पूछताछ और दैनिक केस स्थिति ऑनलाइन प्रकाशित करने जैसे उपाय न्याय प्रणाली की क्षमता को बढ़ा सकते हैं।

  • अनुभवी वकीलों को शामिल करना: अनुभवहीन नियुक्तियों के स्थान पर अनुभवी प्रैक्टिसिंग वकीलों की न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति को प्रोत्साहित किया जाए। इससे न्यायिक निर्णयों की गुणवत्ता, अदालत संचालन की दक्षता और मामलों के निपटान की गति में वृद्धि होती है।

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