सामान्य अध्ययन पेपर II: भारत के हितों पर देशों की नीतियों और राजनीति का प्रभाव, भारत से जुड़े और/या भारत के हितों को प्रभावित करने वाले समूह और समझौते |
चर्चा में क्यों?
हाल ही मे, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका में ‘मुक्ति दिवस’ की घोषणा करते हुए विभिन्न देशों से आयात पर रेसिप्रोकल टैरिफ लागू किए। यह कदम व्यापार असंतुलन दूर करने और अमेरिका के व्यापारिक हितों की रक्षा के उद्देश्य से उठाया गया है।
रेसिप्रोकल टैरिफ (Reciprocal Tariff) क्या हैं?
- परिभाषा: रेसिप्रोकल शुल्क एक ऐसा सीमा शुल्क (टैरिफ) है जो किसी देश द्वारा उस स्थिति में लगाया जाता है जब उसका व्यापारिक साझेदार देश उसके निर्यात पर ऊँचा शुल्क लगाता है। इसका मकसद समानता स्थापित करना और व्यापार में संतुलन बनाए रखना होता है। यह नीति “जैसे को तैसा” के सिद्धांत पर आधारित होती है।
- यह शुल्क द्विपक्षीय प्रतिक्रिया आधारित नीति है। यह व्यापारिक वार्ता का भी माध्यम बनता है, जिससे दूसरे देश पर शुल्क कम करने का दबाव डाला जाता है।
- उद्देश्य: इसका उद्देश्य केवल राजस्व अर्जन नहीं, बल्कि रणनीतिक दबाव बनाकर निष्पक्ष और संतुलित व्यापार सुनिश्चित करना होता है। वर्तमान में यह शुल्क विश्व व्यापार में शक्ति संतुलन बनाने का एक राजनीतिक उपकरण भी बनता जा रहा है।
- भिन्नता: अन्य प्रकार के शुल्क, जैसे सामान्य सीमा शुल्क (Custom Duty) और एंटी-डम्पिंग शुल्क (Anti-dumping Tariff), मुख्यतः घरेलू उद्योगों की रक्षा, राजस्व संग्रह या अनियमित व्यापार प्रथाओं को रोकने के लिए लगाए जाते हैं। इसके विपरीत, रेसिप्रोकल शुल्क द्विपक्षीय संबंधों पर आधारित होते हैं, जो स्पष्ट रूप से दूसरे देश की नीति के प्रति जवाबी कदम होते हैं।
सीमा शुल्क (टैरिफ):
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वैश्विक व्यापार समझौतों में रेसिप्रोकल टैरिफ का इतिहास
- उद्योग सुरक्षा से रणनीतिक व्यापार तक – 19वीं शताब्दी में जब राष्ट्र अपने नवोदित उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाना चाहते थे, तब टैरिफ (सीमा शुल्क) एक प्रभावी हथियार बना। इसी काल में रेसिप्रोकल शुल्क की अवधारणा जन्मी – जहाँ देश एक-दूसरे को लाभ या हानि पहुँचाने के लिए एक जैसे टैरिफ लागू करते थे। इसका उद्देश्य सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक दबाव बनाना भी था।
- कोबडन-शेवलिए संधि (1860) – ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुए इस ऐतिहासिक समझौते ने पहली बार दिखाया कि परस्पर टैरिफ में कटौती दोनों देशों की आर्थिक मजबूती का मार्ग बन सकती है। यह संधि वैश्विक व्यापार नीति में ‘विन-विन’ दृष्टिकोण की शुरुआत थी।
- 20वीं शताब्दी में संरक्षणवाद – अमेरिका में 1930 का स्मूट-हॉले टैरिफ अधिनियम जब लागू हुआ, तो विश्व ने देखा कि अत्यधिक टैरिफ कैसे वैश्विक व्यापार में अवरोध और आर्थिक मंदी का कारण बन सकते हैं। इस नीति के चलते अन्य देशों ने भी प्रतिशोध में टैरिफ लगाए, जिससे वैश्विक व्यापार में भारी गिरावट आई।
- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संतुलन – युद्ध के बाद, विश्व समुदाय ने समझा कि अंधाधुंध टैरिफ टकराव ही लाते हैं। इसी सोच से 1947 में GATT (जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स एंड ट्रेड) का गठन हुआ, जिसने आपसी सहमति और समानता के आधार पर टैरिफ में कटौती की नीति को संस्थागत रूप दिया।
- 21वीं सदी में नया राष्ट्रवाद और व्यापार संघर्ष – हालिया वर्षों में, विशेष रूप से ट्रंप प्रशासन के तहत, अमेरिका ने चीन सहित कई देशों के खिलाफ ‘अन्यायपूर्ण व्यापार नीति’ का हवाला देकर टैरिफ बढ़ाए। बदले में इन देशों ने भी जवाबी शुल्क लगाए। यह घटनाक्रम दर्शाता है कि रेसिप्रोकल टैरिफ आज भी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति प्रदर्शन का एक औज़ार है।
रेसिप्रोकल टैरिफ लागू करने की कार्यप्रणाली
लागू करने की रणनीति:
- रेसिप्रोकल शुल्क का उद्देश्य द्विपक्षीय व्यापार घाटे को शून्य की ओर ले जाना होता है।
- इसे लागू करने की प्रक्रिया में सबसे पहले यह मूल्यांकन किया जाता है कि किस देश के साथ व्यापार घाटा सबसे अधिक है और वह घाटा किन नीतिगत या करात्मक कारणों से बना हुआ है।
- इसके आधार पर प्रत्युत्तर दर (Reciprocal Tariff Rate) तय की जाती है, जिसे उस देश से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर लागू किया जाता है। यह दर 0 प्रतिशत से 99 प्रतिशत तक हो सकती है।
- इस प्रकार का शुल्क लगाने का निर्णय उस स्थिति में लिया जाता है जब स्थायी व्यापार घाटा स्पष्ट रूप से उस देश की कर-नीति, विनियामक बाधाओं, मुद्रा हेरफेर या कर छूट जैसे कारकों से उत्पन्न हुआ हो।
गणना की प्रक्रिया:
- रेसिप्रोकल शुल्क की गणना केवल साधारण आयात-निर्यात अंकों पर आधारित नहीं होती, बल्कि इसमें लचीलेपन के गुणांक (Elasticity), पासथ्रू प्रभाव (Passthrough Effect), और द्विपक्षीय व्यापार का कुल मूल्य भी शामिल होता है।
- इन टैरिफ दरों की गणना अमेरिका जैसे देशों द्वारा अपने आधिकारिक आयात-निर्यात आँकड़ों, जैसे कि यूएस सेंसस ब्यूरो (U.S. Census Bureau) के डेटा पर आधारित होती है।
- किसी निश्चित वर्ष के व्यापार आंकड़ों का उपयोग करते हुए शुल्क की लोच (ε) और पासथ्रू (φ) को इस वर्ष का आधार मानकर इसकी गणना की जाती है।
उदाहरण:
- मान लीजिए अमेरिका किसी देश ‘i’ पर शुल्क लगाना चाहता है, तो यह देखा जाता है कि आयात में कितनी गिरावट आएगी।
- इस गणना में ε (आयात मांग की शुल्क की लोच), φ (शुल्क से आयात कीमत में बदलाव का अनुपात), m_i (देश i से आयात), और x_i (देश i को निर्यात) जैसे पैरामीटर शामिल किए जाते हैं। ये सभी आंकड़े मिलाकर एक ऐसा शुल्क निर्धारित किया जाता है जो व्यापार घाटे को शून्य पर ला सके – यही वास्तविक प्रतिशोधात्मक दर कहलाती है।
रेसिप्रोकल टैरिफ के लाभ
- व्यापार संबंधों में संतुलन का साधन – यह शुल्क उन परिस्थितियों में अत्यंत प्रभावी सिद्ध होते हैं जहाँ किसी देश के निर्यात पर अत्यधिक शुल्क लगाकर उसे वैश्विक बाज़ार में कमजोर किया जाता है। इससे वैश्विक व्यापार संबंधों में पारस्परिक सम्मान और संतुलन का वातावरण बनता है।
- रणनीतिक वार्ता का प्रभावी उपकरण – जब किसी व्यापारिक विवाद या असमान नीति को लेकर बातचीत गतिरोध में फँस जाती है, तब यह शुल्क एक दबावयुक्त कूटनीतिक उपाय बन जाता है। यह न केवल मौजूदा समझौतों को दोबारा खोलने का अवसर देता है, बल्कि देशों को यह प्रेरित करता है कि वे एक-दूसरे की व्यापारिक स्थिति को सम्मान दें और शुल्क दरों को न्यायसंगत बनाएं।
- घरेलू उद्योगों के लिए सुरक्षा कवच – आयातित वस्तुओं पर प्रतिशोधात्मक शुल्क लगाने से उन वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिससे स्थानीय उत्पादक प्रतिस्पर्धा में आगे निकल सकते हैं। इससे घरेलू कारखानों, छोटे व्यापारियों और उत्पादन श्रृंखलाओं को स्थायित्व मिलता है, जो देश की औद्योगिक आत्मनिर्भरता को मजबूत करता है।
- आर्थिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा – जब किसी देश की सरकार अपने उद्योगों की रक्षा के लिए सक्रिय टैरिफ नीति अपनाती है, तो यह केवल आर्थिक निर्णय नहीं होता, बल्कि एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण का प्रतीक भी बनता है। इससे देशवासियों में यह भावना उत्पन्न होती है कि उनकी सरकार उनकी आजीविका, उत्पादन क्षमता और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा कर रही है। यह भावना उत्पादन बढ़ाने, नवाचार को प्रोत्साहित करने और विदेशी निर्भरता को कम करने की दिशा में प्रभावी भूमिका निभाती है।
रेसिप्रोकल टैरिफ से संबंधित चुनौतियाँ और आलोचनाएँ
- वैश्विक व्यापार में गिरावट – जब एक देश आयातित वस्तुओं पर यह शुल्क लगाता है, तो अनिवार्य रूप से दूसरा देश भी बदले में समान शुल्क लगाता है। इस सिलसिलेवार प्रक्रिया से निर्यातकों को भारी क्षति होती है क्योंकि उनके उत्पाद अब विदेशी बाज़ारों में महँगे हो जाते हैं और उनकी प्रतिस्पर्धा घट जाती है। इससे दोनों देशों के व्यापारिक आँकड़े गिरते हैं और वैश्विक व्यापार में अस्थिरता उत्पन्न होती है।
- व्यापार युद्ध का जोखिम – यह शुल्क एक सीमित रणनीति के रूप में प्रभावी हो सकते हैं, परंतु यदि इनका प्रयोग बार-बार और कठोर तरीके से हो, तो यह देशों के बीच व्यापार युद्ध की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं। इससे न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक संबंधों में भी तनाव गहराता है।
- उपभोक्ता कीमतों में वृद्धि – जैसे ही किसी आयातित वस्तु पर उच्च शुल्क लगाया जाता है, उसकी खुदरा कीमत बढ़ जाती है। इससे स्थानीय उपभोक्ताओं को या तो अधिक दाम चुकाने पड़ते हैं या वे उस उत्पाद का त्याग करने पर विवश हो जाते हैं। परिणामस्वरूप बाज़ार में उपलब्ध विकल्प सीमित हो जाते हैं और उपभोक्ता स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
- वैश्विक आपूर्ति में बाधा – आधुनिक वैश्विक व्यापार प्रणाली एक दूसरे पर निर्भर आपूर्ति श्रृंखलाओं (Global Supply Chains) पर आधारित है। इस शुल्क से इन कड़ियों में अवरोध उत्पन्न होता है। कंपनियाँ कच्चे माल से लेकर तैयार उत्पाद तक कई देशों पर निर्भर होती हैं। शुल्क के कारण न केवल उत्पादन लागत बढ़ती है, बल्कि समयबद्ध आपूर्ति भी बाधित होती है, जिससे वैश्विक व्यापारिक स्थायित्व पर प्रश्नचिह्न लगते हैं।
- दीर्घकालिक अस्थिरता – यद्यपि यह नीति अल्पकाल में घरेलू उद्योगों को राहत प्रदान कर सकती है, परंतु दीर्घकाल में यह बाजार को सीमित कर देती है, उपभोक्ता विश्वास कम होने के साथ साथ, यह उत्पादन प्रणाली को महँगा बना देती है। जिससे दो देशों के साथ व्यापार संबंधों में बाधा आने का खतरा रहता है, जो आगे चलकर निवेश, तकनीकी सहयोग और रणनीतिक साझेदारी को भी प्रभावित कर सकता है।
अमेरिका द्वारा घोषित रेसिप्रोकल टैरिफ के मुख्य बिंदु
- 2 अप्रैल 2025 को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‘मुक्ति दिवस’ की घोषणा करते हुए समस्त व्यापारिक साझेदारों पर प्रतिशोधात्मक शुल्क लागू कर दिए, जिससे पिछले 75 वर्षों से चली आ रही मुक्त व्यापार की वैश्विक व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव आया।
- अमेरिका का तर्क है कि यह शुल्क व्यापार घाटा संतुलित करने, मुद्रा हेरफेर, कर और नियामकीय असमानताओं जैसी ‘गैर-आर्थिक बाधाओं’ के प्रत्युत्तर में लगाया गया हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय आपात आर्थिक शक्तियाँ अधिनियम, 1977 (IEEPA) के तहत अमेरिका ने सभी देशों पर 10% का सार्वभौमिक आधार शुल्क लगाया, जो 5 अप्रैल से प्रभाव में आया।
- जिन देशों पर अमेरिका ने “व्यापार बाधा उत्पन्न करने” का आरोप लगाया, उन पर विशेष दरें लागू की गईं, जैसे चीन पर कुल 54%, भारत पर 26%, यूरोपीय संघ पर 20%, जापान पर 24%, और ताइवान पर 32%। यह शुल्क उनके द्वारा अमेरिकी वस्तुओं पर लगाए गए शुल्क और अप्रत्यक्ष बाधाओं की तुलना में ‘छूट के साथ’ तय किए गए।
- कुछ सामग्रियों को शुल्क से मुक्त रखा गया जैसे तांबा, दवाएँ, अर्धचालक (semiconductors), सोना, लकड़ी, ऊर्जा संसाधन, और वे खनिज जो अमेरिका में उपलब्ध नहीं हैं।
- विदेशी वाहनों पर सीधा 25% शुल्क लगाया गया, जिससे जर्मन कंपनी वोल्क्सवैगन जैसी कंपनियों ने अपने आयात पर ‘इंपोर्ट फीस’ लगाने की घोषणा की और बंदरगाहों पर गाड़ियों को रोक दिया।
भारत पर अमेरिकी रेसिप्रोकल टैरिफ का प्रभाव
- सीमित प्रतिकूल प्रभाव – वैश्विक व्यापार अनुसंधान संस्था (GTRI) के अनुसार, अमेरिका द्वारा लगाए गए रेसिप्रोकल शुल्क का भारत पर तत्काल गहरा प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि भारत का निर्यात ढांचा अमेरिका से काफी भिन्न है। उदाहरण के लिए, अगर अमेरिका पिस्ता पर 50% शुल्क लगाता है, तो इससे भारत को कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि भारत इसका निर्यात ही नहीं करता।
- भारत के विशिष्ट क्षेत्रों पर दबाव – भारत को अन्य दक्षिण एशियाई देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम 26% शुल्क का सामना करना पड़ रहा है। यह भारत को कुछ हद तक प्रतिस्पर्धात्मक लाभ प्रदान करता है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक्स (14 अरब डॉलर) और रत्न-आभूषण (9 अरब डॉलर) जैसे उच्च मूल्य वाले क्षेत्रों को इसका नुक्सान हो सकता है।
- भारत के वस्त्र, मछली और ऑटोमोबाइल जैसे श्रमप्रधान क्षेत्रों के निर्यातकों को 26% शुल्क का सामना करना पड़ेगा, जिससे उनकी लागत बढ़ेगी और अमेरिकी बाजार में उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता घटेगी।
- भारत से अमेरिका को लगभग $9 अरब के फार्मास्युटिकल निर्यात को नए शुल्कों से छूट दी गई है। इसी तरह ऊर्जा उत्पादों को भी बाहर रखा गया है, जिससे कुछ राहत बनी हुई है।
- रक्षा और ऊर्जा खरीद – भारत का अमेरिकी रक्षा उपकरणों, कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस में आयात बढ़ सकता है, जिससे भारत का अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष कुछ हद तक घटेगा। इससे अमेरिकी डॉलर की माँग बढ़ेगी और रुपये के अवमूल्यन (depreciation) की संभावना भी प्रबल होगी, जो देश के आयात व्यय को महँगा बना सकता है।
- घरेलू खपत आधारित वृद्धि – 2025 के बजट में ₹1 लाख करोड़ की कर छूट के माध्यम से उच्च आय वर्ग को उपभोग बढ़ाने हेतु प्रोत्साहित किया गया था, लेकिन यदि अमेरिकी उत्पाद सस्ते हो जाते हैं, तो यह वर्ग घरेलू वस्तुओं की बजाय विदेशी उत्पादों की ओर झुक सकता है। इससे आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को नुक्सान हो सकता है और घरेलू विनिर्माण क्षेत्र पर दबाव बढ़ सकता है।
- राजकोषीय नीति में पुनर्संतुलन – भारत को अब अपने कुछ अमेरिकी आयातों (जैसे रत्न-आभूषण, ऑटो पार्ट्स) पर शुल्क में कटौती करनी पड़ सकती है ताकि अमेरिका को संतुलन का संदेश जाए और द्विपक्षीय व्यापार संबंधों को स्थिर रखा जा सके।
UPSC पिछले वर्षों के प्रश्न (PYQs) प्रश्न (2018): निम्नलिखित देशों पर विचार करें:
उपर्युक्त में से कौन-से आसियान के ‘मुक्त-व्यापार साझेदार’ हैं? (a) 1, 2, 4 और 5 (b) 3, 4, 5 और 6 (c) 1, 3, 4 और 5 (d) 2, 3, 4 और 6 उत्तर: (c) प्रश्न (2019): ‘भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में टकराव का कारण यह है कि वाशिंगटन अभी भी अपनी वैश्विक रणनीति में भारत के लिए कोई स्थान नहीं ढूंढ पाया है, जो भारत के राष्ट्रीय स्वाभिमान और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट कर सके।’ उपयुक्त उदाहरणों के साथ समझाइए। |
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