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केंद्र सरकार 2021 में कोविड-19 के कारण स्थगित हुई जनगणना को 2025 में कराने की तैयारी कर रही है। जबकि इसकी आधिकारिक पुष्टि अभी बाकी है, लेकिन यह संभावना है कि जनगणना अगले वर्ष शुरू होगी। यह प्रक्रिया विशेष महत्व रखती है, क्योंकि यह दो प्रमुख मुद्दों से जुड़ी है:
- संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन: जो पिछले पांच दशकों से रुका हुआ है।
- संसद में महिला आरक्षण का कार्यान्वयन।
भारत की जनगणना:
भारत में जनगणना का कार्य 1881 से हर दशक में किया जा रहा है। 2021 की जनगणना पहली बार अपने निर्धारित समय से चूक गई। महामारी के प्रभाव कम होने के बाद, सरकार ने इसे 2023 या 2024 में कराने की योजना बनाई थी, लेकिन यह प्रतीत होता है कि इसे निर्वाचन क्षेत्र पुनर्गठन के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए स्थगित कर दिया गया है।
जनगणना का महत्व:
- आकड़ों का संग्रह: जनसंख्या जनगणना स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर मानव संसाधन, जनसांख्यिकी, संस्कृति और आर्थिक संरचना के बारे में बुनियादी आंकड़े प्रदान करती है।
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: पहली जनगणना 1872 में गैर-समकालिक रूप से आयोजित की गई थी, जबकि पहली समकालिक जनगणना 1881 में हुई थी।
कानूनी और संवैधानिक आधार
- संविधानिक प्रावधान: जनसंख्या जनगणना भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की संघ सूची (प्रविष्टि 69) में सूचीबद्ध है।
- जनगणना अधिनियम, 1948: जनगणना इसी अधिनियम के प्रावधानों के तहत आयोजित की जाती है।
जनगणना प्रक्रिया:
भारत में जनगणना कार्य निम्नलिखित दो चरणों में किया जाता है:
- मकानसूचीकरण और आवास जनगणना
- जनसंख्या गणना: यह आवास जनगणना के बाद छह से आठ महीने के अंतराल पर की जाती है। जनसंख्या की गणना फरवरी में होती है, जिसमें आंकड़े जनगणना वर्ष के 1 मार्च की मध्य रात्रि तक की जनसंख्या को दर्शाते हैं।
जनसंख्या गणना के दौरान प्रत्येक व्यक्ति की गणना की जाती है और उसकी व्यक्तिगत जानकारी जैसे आयु, वैवाहिक स्थिति, धर्म, मातृभाषा आदि दर्ज की जाती है।
परिसीमन और उसका निलंबन:
- परिभाषा: परिसीमन का मतलब है संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण, ताकि जनसंख्या के आधार पर समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके।
- संविधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 82 और अनुच्छेद 170 के तहत, संसद को प्रत्येक जनगणना के बाद लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों के आवंटन को समायोजित करने का अधिकार है।
- स्थगन: राजनीतिक मतभेदों के कारण, परिसीमन की प्रक्रिया 1976 से स्थगित कर दी गई है। 2001 की जनगणना के बाद, 2002 के परिसीमन में केवल निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण किया गया, सीटों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
दक्षिणी राज्यों की चिंताएँ:
- दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि जनसंख्या नियंत्रण में उनकी सफलताएँ उनके प्रतिनिधित्व को कम कर देंगी। वे परिसीमन का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि वर्तमान जनसंख्या के आंकड़ों को ध्यान में रखने पर उनका संसदीय प्रतिनिधित्व अनुचित रूप से कम हो जाएगा।
- 84वें संविधान संशोधन (2001) के अनुसार, परिसीमन कम से कम 2026 तक स्थगित कर दिया गया है, जिससे 2031 जनगणना के बाद परिसीमन का पहला अवसर होगा।
तत्काल परिसीमन की चुनौतियाँ:
- 84वां संविधान संशोधन “वर्ष 2026 के बाद की गई पहली जनगणना” के जनगणना आंकड़ों के आधार पर परिसीमन को प्रतिबंधित करता है।
- यदि जनगणना 2025 में शुरू होकर 2026 में पूरी होती है, तो भी बिना संशोधन के तत्काल परिसीमन संभव नहीं हो सकेगा।
राजनीतिक सहमति की चुनौतियाँ:
- परिसीमन के लिए दक्षिणी राज्यों का समर्थन मुआवजा या अन्य आश्वासन पर निर्भर हो सकता है।
- संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित करने के लिए पारित 128वें संविधान संशोधन को लागू करने से पहले परिसीमन की आवश्यकता है, जिससे परिसीमन आगामी राजनीतिक सुधारों से अधिक जुड़ जाएगा।
16वें वित्त आयोग की भूमिका:
- 16वां वित्त आयोग अगले वर्ष अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा, जो केन्द्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के वितरण पर विचार करेगा। इससे परिसीमन के संबंध में राज्य स्तरीय वार्ता प्रभावित हो सकती है।
जातिगत आंकड़ों की मांग:
- जातिगत आंकड़े: अगली जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल किए जाने की संभावना है, जिससे कुछ राजनीतिक दलों की जातिगत जनगणना की मांग को पूरा किया जा सके।
- पृष्ठभूमि: ब्रिटिश भारत की जनगणना (1881-1931) में जातियों की गणना की गई थी। 1951 की जनगणना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को छोड़कर अन्य जातियों की गणना नहीं की गई।
- सरकारी सिफारिशें: 1961 में, भारत सरकार ने राज्यों को ओबीसी के लिए अपने सर्वेक्षण करने की सिफारिश की थी, जबकि जनगणना एक संघ विषय है, सांख्यिकी संग्रहण अधिनियम, 2008 राज्यों और स्थानीय निकायों को आवश्यक आंकड़े एकत्र करने की अनुमति देता है।
निष्कर्ष: भारत में जनगणना और परिसीमन प्रक्रियाएँ न केवल लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करती हैं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक समावेशिता को भी बढ़ावा देती हैं। आने वाली जनगणना में जातिगत आंकड़ों की संभावना, भारत की विविधता को समझने और प्रतिनिधित्व के मुद्दों को संबोधित करने में महत्वपूर्ण हो सकती है।
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