China Restricts Exports of Rare Earth Elements
सामान्य अध्ययन पेपर I: संसाधनों के प्रकार, खनिज और ऊर्जा संसाधन संसाधनों का संरक्षण |
चर्चा में क्यों (China Restricts Exports of Rare Earth Elements)?
अप्रैल 2025 में, चीन ने दुर्लभ धातुओं और चुंबकीय मिश्रधातुओं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित हुई थी। अब इस कदम का असर भारत की इलेक्ट्रिक वाहन नीति पर पड़ा है, जिससे उत्पादन और विकास में रुकावट आई है।
दुर्लभ धातुएँ (Rare Earth Elements – REEs) क्या हैं?
- परिचय:
- दुर्लभ पृथ्वी धातुएँ (Rare Earth Elements – REEs) कुल 17 तत्वों का समूह हैं, जिनमें 15 लैंथेनाइड, साथ ही स्कैंडियम और यट्रियम शामिल हैं।
- यह धातुएँ पृथ्वी की सतह पर बड़े पैमाने पर उपलब्ध होती हैं, लेकिन इनका खनन, परिशोधन और पृथक्करण बेहद जटिल होता है, जिससे ये महँगी और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बन जाती हैं।
- इन तत्वों के पास ऐसे रासायनिक और भौतिक गुण होते हैं जो इन्हें आधुनिक तकनीक के लिए अनिवार्य बनाते हैं।
- इलेक्ट्रॉनिक्स, हरित ऊर्जा, सैन्य उपकरण और उच्च तकनीक वाले उद्योगों की सतत वृद्धि इन धातुओं पर निर्भर करती है।
- वैश्विक वितरण:
- दुर्लभ धातुएँ दुनिया के कई हिस्सों में पाई जाती हैं, लेकिन इनका व्यावसायिक खनन और शुद्धिकरण बेहद सीमित देशों में होता है।
- वर्तमान में चीन विश्व में दुर्लभ धातुओं का सबसे बड़ा उत्पादक और आपूर्तिकर्ता है।
- भारत के पास केवल 6% दुर्लभ खनिज़ का भंडार है। यह प्रतिशत वैश्विक उत्पादन का मात्र 1% उत्पादन है।
- महत्त्व:
- औद्योगिक महत्त्व: दुर्लभ धातुएँ आज की तकनीकी दुनिया का आधार बन चुकी हैं। मोबाइल फोन, लैपटॉप, टीवी, स्मार्ट डिवाइस, इलेक्ट्रिक गाड़ियाँ, और विंड टरबाइन जैसे उपकरणों के निर्माण में इनका उपयोग आवश्यक है। इनमें से नियोडिमियम और प्रसेओडिमियम जैसे तत्व शक्तिशाली चुंबकों के निर्माण में काम आते हैं, जो इलेक्ट्रिक मोटर और जनरेटर में लगाए जाते हैं।
- ऊर्जा और रक्षा क्षेत्र: लैंथेनम, यिट्रियम और गैडोलिनियम जैसे तत्व नाभिकीय संयंत्रों और उच्च क्षमता बैटरियों में उपयोग होते हैं। इनका उपयोग हाइड्रोजन स्टोरेज और ऊर्जा दक्षता बढ़ाने वाले उपकरणों में भी किया जाता है। मिसाइल मार्गदर्शन प्रणाली, रडार, युद्धक विमान और संचार उपकरण जैसे उपकरणों में इनका प्रयोग किया जाता है।
- पर्यावरणीय संकट:
- दुर्लभ धातुओं का खनन जटिल रासायनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है, जिसमें विषैली गैसें, रेडियोधर्मी अपशिष्ट और जल-दूषण जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- यह खनन पर्यावरण पर गहरा प्रभाव डालता है और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाता है।
चीन का वैश्विक दुर्लभ धातु बाजार पर वर्चस्व
- दुनिया में दुर्लभ मृदा धातुओं का अधिकांश खनन और प्रसंस्करण कार्य चीन के नियंत्रण में है।
- वैश्विक उत्पादन में चीन का हिस्सा अब लगभग 60% तक है। चीन दुर्लभ धातुओं के शोधन और परिष्करण में चीन का प्रभुत्व भी अभूतपूर्व है।
- चीन ने इस क्षेत्र में अत्याधुनिक तकनीक विकसित कर रखी है जिससे वह कम लागत में उच्च गुणवत्ता वाले दुर्लभ धातु उत्पाद तैयार कर दुनिया भर में निर्यात करता है।
- चीन का व्यापक नेटवर्क इस क्षेत्र में उसे एक ऐसा केंद्र बनाता है जिसके बिना विश्व की कई प्रमुख उद्योगें प्रभावित होती हैं।
- चीन सरकार दुर्लभ धातुओं के क्षेत्र को राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक प्रगति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानती है। इसी कारण से उसने इस उद्योग में सतत निवेश, तकनीकी अनुसंधान, और कड़ाई से उद्योग नियंत्रण की नीतियाँ लागू की हैं।
- आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था की कई महत्वपूर्ण शाखाएँ चीन से मिलने वाली दुर्लभ धातुओं पर आश्रित हैं।
- दुनिया के दुर्लभ धातु बाजार में चीन की मजबूत पकड़ उसे न केवल उत्पादन बल्कि मूल्य निर्धारण और निर्यात क्षेत्रों पर भी प्रभावी नियंत्रण प्रदान करती है।
- चीन के निर्यात प्रतिबंधों और नीति निर्धारण से वैश्विक बाजार में कीमतों में उतार-चढ़ाव आता है, जिससे कई देशों को अपनी तकनीकी और औद्योगिक रणनीतियों में बदलाव करना पड़ता है।
चीन ने दुर्लभ धातुओं के निर्यात को प्रतिबंध करने का निर्णय क्यों लिया?
- भू-राजनीतिक रणनीति: चीन और पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका के बीच बढ़ती व्यापारिक और राजनीतिक तनातनी ने चीन को अपनी दुर्लभ धातुओं के निर्यात पर नियंत्रण कड़ाई से लागू करने के लिए प्रेरित किया है। निर्यात प्रतिबंधों के जरिए चीन न केवल अपने सैन्य उपकरणों और ऊर्जा संसाधनों को सशक्त बनाता है, बल्कि इससे उसकी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में प्रभावशीलता भी बढ़ती है।
- यह कदम चीन को अंतरराष्ट्रीय बाजारों में हो रही कीमतों की गिरावट से बचाता है और उसे मूल्य निर्धारण में प्रभुत्व हासिल करने में मदद करता है।
- आर्थिक प्राथमिकताएँ: चीन की सरकार की नीतियाँ दुर्लभ धातुओं के कच्चे माल के निर्यात को सीमित करके घरेलू उत्पादन और तकनीकी विकास को बढ़ावा देने पर केंद्रित हैं। इस रणनीति से चीन अपने देश के अंदर ही उच्च मूल्य वाली उद्योग इकाइयों को विकसित करता है, जो इलेक्ट्रिक वाहनों और नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए आवश्यक दुर्लभ धातुओं का उपयोग करते हैं। इस नीति से चीन अपनी औद्योगिक क्षमता और रोजगार अवसरों को बढ़ावा देता है।
- नियामक पहलू: दुर्लभ धातु खनन की प्रक्रिया पर्यावरण के लिए अत्यंत हानिकारक होती है, जिसमें जहरीले कचरे का उत्पादन और जल-स्रोतों का प्रदूषण शामिल है, जो मिट्टी की गुणवत्ता को भी नुकसान पहुँचाता है। निर्यात पर नियंत्रण लगाने से चीन को अपने खनन क्षेत्रों में सतत और पर्यावरण-हितैषी प्रबंधन लागू करने का अवसर मिलता है। सरकार इस नीति के माध्यम से खनन गतिविधियों को पर्यावरण संरक्षण के अनुरूप ढालते हुए, हरित उत्पादन तकनीकों के विकास को भी बढ़ावा देती है।
चीन के दुर्लभ धातु निर्यात प्रतिबंध का भारत पर प्रभाव
- चीन द्वारा दुर्लभ धातुओं के निर्यात पर लगाए गए प्रतिबंधों ने भारत की इलेक्ट्रिक वाहन (EV) उत्पादन योजनाओं को गंभीर चुनौती में डाल दिया है।
- ये दुर्लभ धातुएं, जिनमें मिश्र धातुएं और चुंबक शामिल हैं, इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण के लिए अनिवार्य हैं।
- भारत अपनी इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के विकास को तेज करने के लिए सरकार के प्रोत्साहन और बजट 2025 में आवंटित निधियों के साथ इस क्षेत्र को बढ़ावा दे रहा है, लेकिन चीन की यह नीति भारत की योजनाओं को प्रभावित कर रही है।
- भारत इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए जरूरी दुर्लभ धातु चुंबकों (rare earth magnets) के लिए पूरी तरह आयात पर निर्भर है। ये चुंबक EV के इलेक्ट्रिक मोटर के लिए एक अहम घटक हैं।
- आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2025 में भारत ने लगभग 870 टन दुर्लभ चुंबक ₹306 करोड़ की लागत से आयात किए, जो दर्शाता है कि भारत की घरेलू उत्पादन क्षमता अभी इस मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं है।
भारत की दुर्लभ मृदा धातुओं (REEs) के लिए वर्तमान नीति
- अन्वेषण प्रणाली:
- भारत में दुर्लभ मृदा धातुओं के अन्वेषण का कार्य मुख्य रूप से खान ब्यूरो (GSI) और परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) द्वारा संचालित किया जाता है।
- इन संस्थाओं को देशभर में नए भंडारों की पहचान और मूल्यांकन के लिए अधिकृत किया गया है।
- वर्ष 2024-25 से लेकर 2030-31 तक 1200 अन्वेषण परियोजनाएँ पूरी करने का लक्ष्य रखा गया है।
- इससे देश में दुर्लभ खनिज संसाधनों की स्थिति को बेहतर तरीके से समझने और उपयोग की दिशा में ठोस कदम उठाने की योजना है।
- खनन और प्रसंस्करण:
- भारत में दुर्लभ मृदा धातुओं के खनन और शोधन (processing) का दायित्व फिलहाल इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (IREL) के पास है।
- यह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई मुख्यतः मोनाज़ाइट जैसे रेत आधारित खनिजों से सामग्री निकालती है, जो विशेष रूप से तटीय राज्यों में पाए जाते हैं।
- IREL अभी अपस्ट्रीम प्रक्रिया पर केंद्रित है, यानी यह केवल प्रारंभिक रूप से REE ऑक्साइड का निर्माण करती है, जबकि उन्नत डाउनस्ट्रीम कार्य जैसे धातु निष्कर्षण और चुंबक निर्माण अब भी विदेशी कंपनियाँ करती हैं।
- नीति:
- ‘माइंस एंड मिनरल्स (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) अधिनियम, 1957’ में वर्ष 2021 में किए गए संशोधन के तहत सरकार ने खनन क्षेत्र को पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा की नई दिशा दी है।
- इसके अनुसार अब किसी भी खदान को विशेष उद्देश्य हेतु आरक्षित नहीं किया जाएगा, जिससे निजी क्षेत्र को भी प्रवेश और निवेश के अवसर मिल सकेंगे।
- नीतिगत बदलाव:
- सरकार दुर्लभ मृदा प्रसंस्करण तकनीक में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए PPP मॉडल अपनाने पर विचार कर रही है। इस मॉडल के माध्यम से उन्नत तकनीक, पूंजी, और दक्षता को एक मंच पर लाने का प्रयास किया जाएगा।
- सरकार वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में संभावित बाधाओं से निपटने के लिए एक रणनीतिक भंडार (Strategic Reserve) बनाने की योजना पर काम कर रही है।
- भारत सरकार एक अलग विभाग के गठन पर भी विचार कर रही है, जो दुर्लभ मृदा धातुओं के अन्वेषण, दोहन, शोधन और नियमन के समस्त पहलुओं को समेकित रूप से संभालेगा।
सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन (National Critical Minerals Mission) की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य आवश्यक खनिजों की दीर्घकालिक सुरक्षित आपूर्ति सुनिश्चित करना है।