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हाल ही में, रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि भारत का व्यापार से “डॉलर हटाने (डी-डॉलराइजेशन)” (de-dollarise) की कोई योजना नहीं है।
RBI गवर्नर के संबोधन की प्रमुख बातें–
- भारत का “डी-डॉलराइजेशन” पर रुख:
- भारत का लक्ष्य व्यापार से अमेरिकी डॉलर को हटाना नहीं, बल्कि मुद्रा जोखिम को कम करना है।
- लोकल करेंसी में व्यापार निपटान के लिए वस्ट्रो अकाउंट और द्विपक्षीय समझौतों की अनुमति दी गई है।
- ब्रिक्स साझा मुद्रा पर चर्चा:
- ब्रिक्स देशों के बीच एक समान मुद्रा की चर्चा प्रारंभिक चरण में है, पर अभी ठोस प्रगति नहीं हुई है।
- आरबीआई गवर्नर ने कहा कि यूरोपीय संघ में एकल मुद्रा की सफलता भौगोलिक निकटता के कारण संभव हुई, जो ब्रिक्स देशों में नहीं है।
- अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता:
- अमेरिकी डॉलर वैश्विक व्यापार में प्रमुख मुद्रा बना हुआ है।
- हालांकि, एक ही मुद्रा पर अत्यधिक निर्भरता मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव से जोखिम बढ़ा सकती है।
डी-डॉलराइजेशन (De-dollarization) क्या है?
- अर्थ: डी-डॉलराइजेशन का मतलब अमेरिकी डॉलर के वैश्विक व्यापार और वित्तीय लेन-देन में प्रभुत्व को कम करना है।
- उद्देश्य: अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता घटाकर अन्य स्थानीय मुद्राओं में व्यापार और भुगतान को बढ़ावा देना।
हाल के रुझान:
- देशों की पहल: भारत, ब्राजील, रूस, चीन और इंडोनेशिया जैसे देश स्थानीय मुद्राओं में व्यापार की ओर बढ़ रहे हैं।
- भारत की पहल: भारत ने कई देशों, विशेषकर रूस के साथ भारतीय रुपये (INR) में व्यापार चालान की अनुमति दी है।
- कारण: रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अमेरिकी डॉलर पर लगाए गए प्रतिबंधों ने मुद्रा पर निर्भरता को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं।
ब्रिक्स की भूमिका:
- ब्रिक्स शिखर सम्मेलन 2024 (कज़ान):
- ब्रिक्स देशों ने एक साझा मुद्रा बनाने की संभावना पर चर्चा की।
- यह कदम अमेरिकी डॉलर की वैश्विक शक्ति को चुनौती देने के लिए एक प्रमुख प्रयास हो सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की ताकत –
- ऐतिहासिक कारण:
- युद्ध के बाद की स्थिति: प्रथम विश्व युद्ध के बाद अमेरिका युद्ध से अछूता रहा, जिससे डॉलर ने पाउंड स्टर्लिंग की जगह लेना शुरू कर दिया।
- ब्रेटन वुड्स समझौता (1944): द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका मजबूत स्थिति में था। इस समझौते ने अमेरिकी डॉलर को वैश्विक रिजर्व मुद्रा के रूप में स्थापित किया।
- रिजर्व मुद्रा का दर्जा:
- केंद्रीय बैंक: दुनिया भर के केंद्रीय बैंक अपनी मुद्राओं को स्थिर रखने और अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन के लिए अमेरिकी डॉलर का भंडार रखते हैं।
- वैश्विक मांग: इससे डॉलर की वैश्विक मांग बनी रहती है, जो इसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में सबसे स्वीकार्य मुद्रा बनाता है।
- स्थिरता और तरलता:
- मुद्रा स्थिरता: अमेरिकी डॉलर को एक स्थिर और आसानी से उपलब्ध मुद्रा माना जाता है, जो वैश्विक आर्थिक संकटों में भी टिकाऊ रहता है।
डॉलर के प्रभुत्व से जुड़ी समस्याएं–
- आर्थिक शक्ति का केंद्रीकरण:
- नियंत्रण: अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व के कारण अमेरिका वैश्विक वित्तीय लेन-देन को नियंत्रित कर सकता है।
- प्रभाव: यह प्रतिबंध लगाने और वैश्विक व्यापार नीतियों को प्रभावित करने में सक्षम बनाता है।
- व्यापार घाटा:
- समस्या: लगातार अमेरिकी व्यापार घाटे के कारण बड़ी मात्रा में डॉलर वैश्विक बाजार में पहुंचते हैं।
- परिणाम: ये अतिरिक्त डॉलर अक्सर अमेरिकी संपत्तियों में पुनर्निवेश किए जाते हैं, जिससे वैश्विक आर्थिक असंतुलन पैदा होता है।
- अन्य मुद्राओं के लिए चुनौतियां:
- उदाहरण: भारत-रूस के रुपये-रूबल व्यापार जैसे प्रयासों को व्यापार असंतुलन की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- परिणाम: एक देश के पास अतिरिक्त मुद्रा इकट्ठा हो जाती है, जिसे वह आसानी से उपयोग नहीं कर सकता।