In-Principle Approval Granted to Gadchiroli Iron Ore Plant
सामान्य अध्ययन पेपर III: वृद्धि एवं विकास, औद्योगिक विकास, औद्योगिक नीति |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में लौह अयस्क परिष्करण संयंत्र को सैद्धांतिक वन स्वीकृति दी है। यह निर्णय खनन और औद्योगिक विकास को गति देने की दिशा में उठाया गया है।
(In-Principle Approval Granted to Gadchiroli Iron Ore Plant) गढ़चिरौली लौह अयस्क परिष्करण संयंत्र
- स्थान:
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- यह लौह अयस्क परिष्करण संयंत्र, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में स्थापित किया जाएगा।
- यह जिला महाराष्ट्र का एक पिछड़ा और वामपंथी उग्रवाद (LWE) प्रभावित क्षेत्र है।
- प्रस्तावित लौह अयस्क संयंत्र सुरजगढ़ क्षेत्र में स्थापित किया जा रहा है, जो लौह अयस्क जैसे खनिजों के लिए प्रसिद्ध है।
- राज्य सरकार ने गढ़चिरौली खनन प्राधिकरण की स्थापना की है, जो इस क्षेत्र की खनिज नीति को नियंत्रित करेगा।
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- कंपनी:
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- इस संयंत्र की स्थापना की योजना लॉयड मेटल्स एंड एनर्जी लिमिटेड द्वारा बनाई गई है, जिसे वर्ष 2007 में सुरजगढ़ खदान का पट्टा प्राप्त हुआ था।
- अब कंपनी को केंद्र सरकार से सैद्धांतिक वन मंजूरी प्राप्त हुई है, जिससे परियोजना को गति मिल सकेगी।
- स्वीकृति:
- 12 मई 2025 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वन सलाहकार समिति (FAC) की अनुशंसा पर यह मंजूरी दी गई।
- मंत्रालय ने परियोजना को तीन चरणों में भूमि उपयोग की अनुमति दी है —
- प्रथम चरण : 300 हेक्टेयर भूमि उपयोग
- द्वितीय चरण : 200 हेक्टेयर उपयोग, प्रथम चरण की सफलता के बाद
- तृतीय चरण : 237 हेक्टेयर भूमि का उपयोग, पूर्ववर्ती चरणों की समीक्षा के उपरांत
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- उद्देश्य:
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- यह संयंत्र मौजूदा सुरजगढ़ खदान से निकाले जा रहे निम्न-ग्रेड लौह अयस्क (हेमेटाइट क्वार्ट्जाइट) को परिष्कृत करने के लिए प्रस्तावित है।
- परिष्करण संयंत्र के माध्यम से खनिज से अशुद्धियाँ हटाकर उसे उच्च गुणवत्ता वाला बनाया जाएगा, जो इस्पात उद्योग में प्रयुक्त हो सकेगा।
- इसके माध्यम से सरकार का उद्देश्य खनिज संसाधनों का नियोजित और अधिकतम उपयोग किया जाए है।
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- विशेषताएं:
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- इस संयंत्र के माध्यम से 348 हेक्टेयर खदान क्षेत्र से अयस्क निकालना संभव होगा, जिसका पट्टा 2057 तक वैध है।
- संयंत्र में अयस्क का स्रोत सुरजगढ़ की मौजूदा खदानें होंगी, जिससे परिवहन लागत कम होगी और स्थानीय संसाधनों का कुशल उपयोग संभव हो सकेगा।
गढ़चिरौली खनन क्षेत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- गढ़चिरौली क्षेत्र में लौह अयस्क की संभावनाओं की पहचान सबसे पहले प्रसिद्ध उद्योगपति जमशेदजी टाटा ने 1900 के दशक की शुरुआत में की थी।
- उस समय यह क्षेत्र अयस्क की गुणवत्ता और मात्रा के लिहाज़ से अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया। परंतु, कोकिंग कोल (Coking Coal – धातु गलाने में प्रयुक्त कोयला) की अनुपलब्धता ने इस परियोजना के भविष्य को प्रभावित किया।
- लंबे समय तक गढ़चिरौली क्षेत्र में लौह अयस्क के विपुल भंडार के बावजूद खनन गतिविधियाँ केवल कागज़ों तक सीमित रहीं।
- इसके बाद लॉयड मेटल्स एंड एनर्जी लिमिटेड (LMEL) को वर्ष 2007 में सुरजगढ़ क्षेत्र में लौह अयस्क खनन के लिए 20 वर्षों का पट्टा प्रदान किया गया।
- कंपनी लगातार विरोध, हिंसा और माओवादी गतिविधियों की वजह से खनन कार्य प्रारंभ नहीं कर सकी।
- वर्ष 2016 में माओवादियों ने सुरजगढ़ खनन क्षेत्र में भीषण हमला किया, जिसमें 69 ट्रकों और 3 अर्थ मूवर्स (भूमि समतलीकरण यंत्र) को जला दिया गया। इसके बाद यहां परियोजना लंबे समय तक रुकी रही।
- पिछले पांच वर्षों में धीरे-धीरे खनन कार्यों को पुनः आरंभ किया। राज्य और केंद्र सरकार की सुरक्षा रणनीतियों, विशेषकर C-60 कमांडो बल और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की सहायता से क्षेत्र में सुरक्षा का भरोसा बढ़ा और कंपनी को कार्यान्वयन का अवसर मिला।
- अब वर्ष 2025 में यह क्षेत्र एक बार फिर औद्योगिक पुनर्जागरण की ओर अग्रसर है, जहाँ स्थानीय विकास और बुनियादी ढांचे में सुधार की संभावनाएँ प्रबल हो गई हैं।
गढ़चिरौली खनन क्षेत्र और परिष्करण संयंत्र की आवश्यकता क्यों है?
- वैश्विक महत्व:
- महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला भारत के औद्योगिक भविष्य का केंद्र है। यह क्षेत्र इतना अधिक लौह अयस्क (Iron Ore) भंडारित करता है कि देश को वैश्विक मंच पर आयरन अयस्क उत्पादन में दूसरे स्थान पर पहुंचा सकता है।
- यहां उपलब्ध 64% शुद्धता वाला लौह अयस्क, विश्वस्तरीय गुणवत्ता वाला है, जो कोकिंग कोल की आवश्यकता को भी काफी हद तक घटा देता है।
- परियोजनाएं:
- फरवरी 2025 में JSW ग्रुप ने गढ़चिरौली में 25 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन क्षमता वाला विश्व का सबसे बड़ा इस्पात संयंत्र स्थापित करने की घोषणा की है। इससे देश की विदेशी इस्पात पर निर्भरता कम होगी और स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा।
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- इस क्षेत्र में तीनों परियोजनाएँ—JSW, LMEL और सूरजगढ़ इस्पात चल रही है। इसके पूर्ण रूप से क्रियान्वित होने पर गढ़चिरौली की कुल इस्पात उत्पादन क्षमता 33 मिलियन टन तक पहुँच जाएगी।
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- स्थानीय रोज़गार:
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- खनन और परिष्करण संयंत्रों की स्थापना से गढ़चिरौली जैसे पिछड़े और आदिवासी क्षेत्र में हजारों प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष नौकरियाँ सृजित होंगी।
- इससे स्थानीय युवाओं को बेहतर जीवन, प्रशिक्षण और स्थायी आय के अवसर मिलेंगे।
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- ऊर्जा कुशल:
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- गढ़चिरौली में पाए जाने वाला हाई-ग्रेड लौह अयस्क इस्पात उत्पादन में कोकिंग कोल की खपत को घटा देता है, जिससे ऊर्जा की बचत और प्रदूषण में कमी आती है।
- इन परियोजनाओं में हरित उद्योग नीति (Green Industry Policy) के अनुरूप तकनीकों का उपयोग किया जाएगा, जिससे दीर्घकालीन पर्यावरणीय संतुलन भी सुनिश्चित होगा।
गढ़चिरौली खनन क्षेत्र: पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताएं
- पारिस्थितिकी संकट: गढ़चिरौली जिले में प्रस्तावित खनन परियोजना के लिए कुल 937 हेक्टेयर वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति दी गई है। इसके साथ ही 1.23 लाख से अधिक पेड़ों की कटाई भी की जानी है, जो जैवविविधता और पारिस्थितिक संतुलन के लिए गंभीर खतरा बन सकता है।
- यह क्षेत्र घने जंगलों से आच्छादित है और महाराष्ट्र के सबसे अधिक संवेदनशील पर्यावरणीय क्षेत्रों में शामिल है।
- पेड़ों की इतनी बड़ी संख्या में कटाई से स्थानीय तापमान में वृद्धि, मृदा अपरदन, और जलवायु असंतुलन जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
- वन्यजीवों की चिंता: इस परियोजना का विस्तार ताडोबा-अंधारी और इंद्रावती टाइगर रिजर्व के बीच फैले बाघ गलियारे (Tiger Corridor) के आंशिक हिस्से तक पहुँचता है।
- इस क्षेत्र में परियोजना की उपस्थिति से वन्यजीवों की आवाजाही बाधित होगी, जिससे बाघों के व्यवहार, प्रजनन और अस्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
- प्रतिपूरक वनीकरण: खनन के बदले में चिपलून (रत्नागिरी) क्षेत्र में प्रतिपूरक वनीकरण (Compensatory Afforestation) की योजना बनाई गई है। लेकिन यह खंडित पारिस्थितिकी (Fragmented Ecology) को बहाल करने के लिए अपर्याप्त और स्थान-विशिष्ट नहीं मानी जा रही है। गढ़चिरौली के जैविक और पारिस्थितिक तंत्र की पुनर्रचना किसी अन्य भौगोलिक क्षेत्र में संभव नहीं है।
- स्थानीय आदिवासी समुदायों की असहमति: इस परियोजना का स्थानीय पारंपरिक वनवासी समुदायों के द्वारा विरोध किया जा रहा है, जिनकी आजीविका, सांस्कृतिक पहचान और जीवनशैली सीधे इस वन क्षेत्र से जुड़ी हुई है।
- वन अधिकार अधिनियम (2006) के तहत उन्हें जिस भूमि पर अधिकार है, उस पर परियोजना के विस्तार से उनका सामाजिक और आर्थिक विस्थापन संभावित है।
- आदिवासी समुदायों का कहना है कि बिना उनकी पूर्ण सहमति के भूमि का अधिग्रहण उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।
संस्कृति पर संकट: इस परियोजना से केवल प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही नहीं, बल्कि आदिवासी समुदायों की पारंपरिक चिकित्सा, जीवनशैली, और धार्मिक आस्थाओं पर भी प्रभाव पड़ेगा। जंगलों से मिलने वाली जड़ी-बूटियों, कंद-मूल और जल स्रोतों पर निर्भरता, उनकी सदियों पुरानी ज्ञान प्रणाली का हिस्सा है, जिसे खनन जैसी परियोजनाएं नष्ट करने की कगार पर ला सकती हैं।