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भारतीय माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र ने विनियामक सुधारों, तकनीकी उन्नति और सरकारी पहलों के कारण महत्वपूर्ण प्रगति की है, जिससे लाखों पहले वंचित परिवारों को ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित हुई है। इस क्षेत्र ने अपनी 50वीं वर्षगांठ मनाते हुए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर हासिल किया है।
भारतीय माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र का इतिहास और विकास:
भारतीय माइक्रोफाइनेंस की शुरुआत 1974 में गुजरात में हुई, जब स्व-नियोजित महिला संघ (सेवा) बैंक की स्थापना की गई। यह भारत का पहला माइक्रोफाइनेंस संस्थान (MFI) था, जिसका मुख्य उद्देश्य गरीब महिलाओं को वित्तीय सेवाएं प्रदान करना था। तब से, माइक्रोफाइनेंस ने ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सेवाएं:
माइक्रोफाइनेंस, जिसे माइक्रोक्रेडिट भी कहा जाता है, गरीब व्यक्तियों या समूहों को वित्तीय सेवाएं प्रदान करने का एक साधन है। इसमें कई सेवाएं शामिल हैं, जैसे:
- बचत और चेकिंग खाते
- फंड ट्रांसफर
- माइक्रो इंश्योरेंस
- माइक्रोक्रेडिट
जोखिम :
- ऋण जोखिम: ग्राहकों द्वारा ऋण चुकाने में विफलता का खतरा।
- ऑपरेशनल जोखिम: प्रक्रियाओं और प्रणालियों में कमियों के कारण होने वाली समस्याएं।
- लिक्विडिटी जोखिम: नकदी प्रवाह में कमी के कारण दायित्वों को पूरा करने में असमर्थता।
- मुद्रा जोखिम: विभिन्न मुद्राओं में लेन-देन के दौरान होने वाली समस्याएं।
- प्रतिष्ठा जोखिम: नकारात्मक प्रचार के कारण ग्राहकों का विश्वास खोना।
- नियामक जोखिम: कानूनों में बदलाव के कारण संचालन और लाभप्रदता पर प्रभाव।
विकास के प्रमुख क्षण:
1980 के दशक में शुरू हुआ माइक्रोफाइनेंस का विकास DRI और IRDP जैसी योजनाओं पर निर्भर था, लेकिन इनमें उच्च लागत और अक्षमताओं जैसी समस्याएं थीं। 2010 में आंध्र प्रदेश में MFI के खिलाफ विवाद के बाद, RBI ने मालेगाम समिति का गठन किया, जिसने नियमों में सुधार की सिफारिश की।
वर्तमान स्थिति:
भारतीय माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र ने तेजी से वृद्धि दर्ज की है। 2012 से 2022 तक, इसका सकल ऋण पोर्टफोलियो INR 17,000 करोड़ से बढ़कर INR 2.85 लाख करोड़ हो गया है। हाल के वर्षों में लाभप्रदता में वृद्धि हुई है, जबकि COVID-19 महामारी जैसी चुनौतियों का सामना करने में लचीलापन भी दिखाई दिया है।
चुनौतियाँ और समाधान:
अभी भी, कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं:
- ब्याज दर: MFI द्वारा ली जाने वाली ब्याज दरें अक्सर अधिक होती हैं।
- ऋणग्रस्तता: कई ग्राहकों द्वारा कई स्रोतों से ऋण लेना।
- परिचालन लागत: छोटे ऋण पोर्टफोलियो और महंगी ऋण जोखिम प्रबंधन।
- वित्तीय साक्षरता: वित्तीय और डिजिटल साक्षरता की कमी।
इन समस्याओं के समाधान के लिए बहुआयामी रणनीतियों की आवश्यकता है, जिसमें बेहतर विनियामक ढांचा और वित्तीय साक्षरता पहलों का समावेश होना चाहिए।
निष्कर्ष: भारतीय माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र की यात्रा लंबी और कठिन रही है, लेकिन इसने महत्वपूर्ण सुधार और प्रगति की है। वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका अनमोल है। हालांकि, चुनौतियों का सामना करने के लिए निरंतर प्रयास की आवश्यकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी गरीब परिवारों को आवश्यक वित्तीय सेवाएं मिल सकें।
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