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दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध का विरोध

सामान्य अध्ययन पेपर II: निर्णय और मामले, न्यायतंत्र, संसद

चर्चा में क्यों? 

दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध: वर्तमान में, सर्वोच्च न्यायालय में दोषी नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध की मांग पर सुनवाई हो रही है। केंद्र सरकार ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि वर्तमान कानून संवैधानिक रूप से उचित है और अनुच्छेद 327 के तहत प्रतिबंध की अवधि तय करना संसद का अधिकार है।

दोषी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के मुख्य बिंदु

  • अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिका में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) की धारा 8 में संशोधन की मांग की गई है।
  • इसमें अनुरोध किया गया है कि किसी भी अपराध में दोषी ठहराए गए व्यक्ति को आजीवन चुनाव लड़ने, राजनीतिक दल बनाने या किसी राजनीतिक दल का पदाधिकारी बनने से रोका जाए।
  • सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 102(1)(e) और 191(1)(e) का हवाला देते हुए कहा कि चुनावी अयोग्यता से संबंधित प्रावधान संसद द्वारा बनाए जाने चाहिए, न कि न्यायपालिका द्वारा।
  • सरकार का मानना है कि छह वर्ष की अयोग्यता पर्याप्त दंड है और आजीवन प्रतिबंध अनुचित एवं कठोर होगा।
  • अन्य अयोग्यता के मामलों (जैसे लाभ के पद पर होना, मानसिक असंतुलन, दिवालियापन, विदेशी नागरिकता) में भी समय-सीमा तय है, अतः दोषी नेताओं के लिए भी इसे स्थायी नहीं किया जा सकता।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 क्या हैं?

लोकतंत्र में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव सुनिश्चित करने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) भारत में एक महत्वपूर्ण विधिक आधार प्रदान करता है। यह अधिनियम चुनाव प्रक्रिया के संचालन, योग्यता-अयोग्यता के मानकों, भ्रष्ट आचरण की परिभाषा, चुनावी अपराधों और चुनावी विवादों के समाधान से संबंधित विस्तृत प्रावधान करता है।

  • अधिनियम की पृष्ठभूमि: संविधान सभा द्वारा संविधान को 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किए जाने के बाद, संविधान के अनुच्छेद 327 के तहत संसद को चुनावों से संबंधित कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई। 
  • इसके परिणामस्वरूप, भारत की अस्थायी संसद ने 1951 में इस अधिनियम को पारित किया। यह अधिनियम 1952 के पहले आम चुनाव से पहले लागू किया गया था ताकि लोकतांत्रिक प्रणाली को प्रभावी रूप से क्रियान्वित किया जा सके।
  • प्रमुख प्रावधान: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 का मुख्य उद्देश्य भारत में संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए निष्पक्ष एवं स्वतंत्र चुनाव कराना है। यह अधिनियम चुनावी प्रक्रिया के प्रत्येक चरण को विनियमित करता है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:
    • चुनाव कार्यक्रम की घोषणा, नामांकन प्रक्रिया, मतदान प्रक्रिया, और मतगणना के नियमों को इस अधिनियम के अंतर्गत परिभाषित किया गया है।
    • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचन आयोग को आवश्यक अधिकार प्रदान किए गए हैं।
    • आयु, मतदाता सूची में नाम दर्ज होना, और अन्य संवैधानिक मानकों को इस अधिनियम के तहत परिभाषित किया गया है।
    • इस अधिनियम में मतदान प्रक्रिया में गड़बड़ी, रिश्वतखोरी, मतदाता को प्रभावित करना, जबरदस्ती करना, आचार संहिता का उल्लंघन करना और अन्य चुनावी अपराधों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
    • चुनाव संबंधी विवादों को हल करने के लिए संबंधित उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

दोषी व्यक्तियों के चुनाव लड़ने से संबंधित कानूनी प्रावधान

भारतीय लोकतंत्र में राजनीति की शुचिता बनाए रखने हेतु लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में दोषी व्यक्तियों के चुनाव लड़ने पर विभिन्न प्रावधान निर्धारित किए गए हैं। इन प्रावधानों के अंतर्गत अयोग्यता की शर्तें, अवधि तथा अपवादों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।

  • आपराधिक दोषसिद्धि
    • धारा 8(3): यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध में दोषी पाया जाता है और उसे दो वर्ष या उससे अधिक की कारावास की सजा सुनाई जाती है, तो वह सजा की अवधि के दौरान तथा रिहाई के बाद छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य माना जाएगा।
    • धारा 8(1): जघन्य अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्तियों की अयोग्यता सजा की अवधि पर निर्भर नहीं करती। इनमें बलात्कार, भ्रष्टाचार, आतंकवाद (UAPA अपराध) और अस्पृश्यता जैसे गंभीर अपराध शामिल हैं। इन मामलों में दोषसिद्ध व्यक्ति को अवधि समाप्त होने के बाद भी छह वर्ष तक चुनाव लड़ने से रोका जाता है।
  • चुनावी अधिकार
    • धारा 62(5): किसी भी दोषसिद्ध व्यक्ति को, यदि वह जेल में बंद है, तो मतदान करने से रोक दिया जाता है।
    • हालाँकि, यह धारा विचाराधीन कैदियों (जिन पर मुकदमा जारी है लेकिन दोषसिद्धि नहीं हुई) को चुनाव लड़ने की अनुमति देती है, जिससे यह एक महत्वपूर्ण अपवाद बन जाता है।
  • निर्वाचन आयोग
    • धारा 11: भारत का निर्वाचन आयोग (ECI) किसी भी दोषसिद्ध व्यक्ति की अयोग्यता अवधि को कम करने या समाप्त करने का अधिकार रखता है।
    • यह प्रावधान न्यायिक दंड को संतुलित करने के साथ-साथ राजनीतिक परिदृश्य में संभावित हस्तक्षेप का मार्ग भी खोलता है।

दोषी व्यक्तियों को चुनाव से प्रतिबंधित करने की आवश्यकता क्यों है?

  • अपराधीकरण: हालिया वर्षों में राजनीति में अपराधी पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की बढ़ती भागीदारी चिंता का विषय बन गई है। ADR (Association for Democratic Reforms) की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 के आम चुनावों में निर्वाचित सांसदों में से 46% पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो लोकतंत्र की शुचिता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। इसमें 31% सांसद ऐसे हैं जिन पर हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों के आरोप हैं। इस प्रकार के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि आपराधिक प्रवृत्ति के लोग सत्ता में आने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं।
  • चुनावी जीत: आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की जीत की संभावना साफ छवि वाले नेताओं की तुलना में अधिक होती है। ऐसे उम्मीदवारों की जीत की संभावना 15.4% होती है, जबकि स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों के जीतने की संभावना मात्र 4.4% होती है। यह दर्शाता है कि राजनीति में बाहुबल, धनबल और आपराधिक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है, जिससे लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को ठेस पहुंचती है।
  • नैतिक अधमता: राजनीति में सत्यनिष्ठा और नैतिकता सर्वोपरि होती है। लेकिन जब आपराधिक प्रवृत्ति के लोग चुनाव जीतकर सत्ता में आते हैं, तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत होता है। जब जनप्रतिनिधि स्वयं गंभीर अपराधों में लिप्त होते हैं, तो वे कानून को प्रभावी रूप से लागू करने में विफल रहते हैं, जिससे पूरे प्रशासनिक तंत्र की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।
  • विश्वास की हानि: यदि कोई दोषसिद्ध व्यक्ति सत्ता में आता है, तो जनता में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति अविश्वास बढ़ता है। भ्रष्टाचार और आपराधिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति जब शासन का हिस्सा बनते हैं, तो उनकी प्राथमिकता स्वयं का हित साधना हो जाता है, न कि जनता की सेवा करना।

दोषी व्यक्तियों के चुनावी अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्णय

अपराधी पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से रोकने और जनता को सही जानकारी देने के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐतिहासिक फैसले सामने आए हैं, जिन्होंने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण सुधार किए हैं।

  • CEC बनाम जन चौकीदार, 2013: इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए स्पष्ट किया कि जो व्यक्ति जेल में बंद हैं, वे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) के तहत अपना ‘निर्वाचक’ दर्जा खो देते हैं। इसके आधार पर, विचाराधीन कैदियों को चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया गया। 
  • ADR मामला, 2002: इस निर्णय के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव लड़ने वाले सभी प्रत्याशियों के लिए अपने आपराधिक रिकॉर्ड को सार्वजनिक करना अनिवार्य कर दिया। इससे मतदाताओं को प्रत्याशियों के बारे में सही जानकारी प्राप्त करने और एक सुयोग्य प्रतिनिधि चुनने में सहायता मिलती है। इस फैसले ने लोकतंत्र को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • लिली थॉमस केस, 2013: इस ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(4) को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इससे पहले, दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों को अपील करने तक अपने पद पर बने रहने की छूट थी। लेकिन इस फैसले के बाद, कोई भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि यदि दोषसिद्ध हो जाता है, तो उसे तत्काल अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।

दोषी व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगाने की प्रमुख चुनौतियाँ

  • आपराधिक मामलों का दुरुपयोग: राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते आपराधिक मामलों का दुरुपयोग एक गंभीर चिंता है। यदि केवल आरोपों के आधार पर किसी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से रोका जाता है, तो राजनीतिक दल अपने विरोधियों को झूठे मामलों में फँसाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं। यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध जाएगा और चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाए रखना कठिन हो सकता है।
  • निष्पक्षता का प्रश्न: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 11 चुनाव आयोग को दोषी व्यक्ति की अयोग्यता की अवधि घटाने या हटाने का अधिकार देती है। हालांकि, यह विवेकाधीन शक्ति राजनीतिक दबाव और पक्षपात के आरोपों को जन्म दे सकती है।
  • संतुलन की कमी: प्रत्येक अपराध नैतिक रूप से सार्वजनिक पद के लिए अनुपयुक्त नहीं होता। मामूली अपराधों के लिए किसी व्यक्ति को आजीवन चुनाव लड़ने से रोकना असंगत हो सकता है। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति को किसी विरोध प्रदर्शन के दौरान कानून का उल्लंघन करने के लिए दोषी ठहराया गया हो, तो उसे भी जघन्य अपराधों की श्रेणी में रखना तर्कसंगत नहीं होगा। इसलिए, अपराध की प्रकृति और उसकी गंभीरता के आधार पर प्रतिबंध की अवधि तय करना आवश्यक है।
  • चुनाव लड़ने की संभावना: भारतीय न्याय व्यवस्था में मुकदमों की सुनवाई में अत्यधिक समय लगता है। वर्षों तक मामले लंबित रहने के कारण कई गंभीर आरोपों वाले प्रत्याशी दोषसिद्धि से पहले कई चुनाव लड़कर निर्वाचित हो जाते हैं। यह स्थिति अपराधी प्रवृत्ति के नेताओं को सत्ता में आने का अवसर देती है और न्याय मिलने में हो रही देरी को लोकतंत्र के लिए एक चुनौती बना देती है।

UPSC पिछले वर्षों के प्रश्न (PYQs)

प्रश्न (2021): निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)

  1. भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो प्रत्याशियों को किसी एक लोकसभा चुनाव में तीन निर्वाचन-क्षेत्रों से लड़ने से रोकता है।  
  2. 1991 में लोकसभा चुनाव में श्री देवी लाल ने तीन लोकसभा निर्वाचन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था।   
  3. वर्तमान नियमों के अनुसार, यदि कोई प्रत्याशी किसी एक लोकसभा चुनाव में कई निवार्चन-क्षेत्रों से चुनाव लड़ता है, तो उसकी पार्टी को उन निर्वाचन-क्षेत्रों के उप-चुनावों का खर्च उठाना चाहिये, जिन्हें उसने खाली किया है बशर्ते वह सभी निर्वाचन-क्षेत्रों से विजयी हुआ हो।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1      

(b)  केवल 2

(c) 1 और 3      

(d) 2 और 3

उत्तर: (b)

प्रश्न (2022): लोक प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत संसद अथवा राज्य विधायिका के सदस्यों के चुनाव से उभरे विवादों के निर्णय की प्रक्रिया का विवेचन कीजिये। किन आधारों पर किसी निर्वाचित घोषित प्रत्याशी के निर्वाचन को शून्य घोषित किया जा सकता है? इस निर्णय के विरुद्ध पीड़ित पक्ष को कौन-सा उपचार उपलब्ध है? वाद विधियों का संदर्भ दीजिये।

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