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नक्सली विद्रोह या वामपंथी उग्रवाद (LWE) ने झारखंड में स्थित पलामू टाइगर रिजर्व के वन संरक्षण प्रयासों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। यह रिजर्व भारत के पहले नौ टाइगर रिजर्वों में से एक है, जिसे 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत घोषित किया गया था। नक्सलियों की गतिविधियों के कारण, रिजर्व में वनीकरण कार्यों और बाघ संरक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
नक्सली गतिविधियों का प्रभाव:
पलामू टाइगर रिजर्व में नक्सलियों की घुसपैठ के कारण वन अधिकारियों ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) को सूचित किया है कि बाघों के संरक्षण और जनगणना के प्रयासों में रुकावट आ रही है। नक्सलियों की उपस्थिति की वजह से रिजर्व के प्रमुख क्षेत्रों तक पहुंच असंभव हो गई है, जिससे संरक्षण प्रयासों में बाधा उत्पन्न हो रही है।
बाघों की जनसंख्या में गिरावट:
- 1995: रिजर्व में 71 बाघों का रिकॉर्ड, जो अब तक का सबसे अधिक आंकड़ा था।
- 2014: तीन बाघ देखे गए।
- 2019: अखिल भारतीय बाघ अनुमान में कोई बाघ नहीं पाया गया।
- 2020: एक मृत बाघ मिला।
- दिसंबर 2023: दो नर बाघों की उपस्थिति दर्ज की गई।
वर्तमान स्थिति:
- वामपंथी उग्रवाद और रिजर्व के अंदर सुरक्षाकर्मियों की आवाजाही के कारण बाघों के शिकार की घटनाएं कम हो गई हैं, और बाघ पड़ोसी राज्यों छत्तीसगढ़ और ओडिशा में चले गए हैं।
- अधिकारियों ने बाघों की जनसंख्या बढ़ाने और दो बाघिनों को रिजर्व में स्थानांतरित करने की योजना बनाई है।
पलामू टाइगर रिजर्व (PTR) के बारे में :
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प्रशासनिक चुनौतियाँ:
- वामपंथी उग्रवाद: पलामू टाइगर रिजर्व 1990 से वामपंथी उग्रवाद की समस्या का सामना कर रहा है।
- कर्मचारी की कमी: 1990 के दशक से कर्मचारियों की भर्ती लंबित है। 60% से अधिक पद, जिनमें वन रक्षक के पद भी शामिल हैं, खाली हैं। अधिकांश कर्मचारी सेवानिवृत्ति के करीब हैं।
निष्कर्ष:
पलामू टाइगर रिजर्व में नक्सली गतिविधियों और प्रशासनिक चुनौतियों के कारण बाघों की सुरक्षा और संरक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इन समस्याओं के समाधान के लिए समन्वित प्रयास और संसाधनों की आवश्यकता है ताकि भारत के इस ऐतिहासिक बाघ अभयारण्य को पुनर्जीवित किया जा सके और बाघों की जनसंख्या को सुरक्षित किया जा सके।
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