Delhi High Court verdict on POCSO case
संदर्भ:
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम के तहत एक केस पर टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि केवल इसलिए कि एक बाल पीड़ित मुकदमे के दौरान मुकर (Hostile) जाता है, मामले को खारिज नहीं किया जा सकता।
दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के मुख्य बिंदु:
- न्यायालय ने एक मामले में सौतेले पिता की सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि बाल पीड़ितों की शत्रुता (Hostility) को अलगाव में नहीं देखा जाना चाहिए।
- अदालत ने माना कि बच्चे अक्सर परिवार के दबाव, सामाजिक बहिष्कार के डर और परिवार की एकता बनाए रखने की इच्छा के कारण अपनी गवाही से पीछे हट जाते हैं।
- विशेष रूप से जब अपराधी घर का मुख्य कमाने वाला या देखभाल करने वाला हो, तो बच्चा ‘आश्रय खोने के डर’ से सत्य को वापस ले सकता है।
- यदि वैज्ञानिक और फोरेंसिक साक्ष्य (जैसे DNA प्रोफाइलिंग या मेडिकल रिपोर्ट) अपराध की पुष्टि करते हैं, तो पीड़ित के बयान बदलने के बावजूद सजा दी जा सकती है।
- POCSO अधिनियम की धारा 29 और 30 के तहत अभियुक्त के दोष की उपधारणा को हल्के में नहीं लिया जा सकता, भले ही गवाह मुकर जाएं।
- इससे पहले एक अन्य केस पर न्यायालय ने कहा कि धारा 164 BNSS के तहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किए गए बयान और चिकित्सा साक्ष्य (MLC) मुकदमे के दौरान मुकरने के बावजूद सजा का आधार बन सकते हैं।
- न्यायालय ने 2024 के नए मॉडल दिशानिर्देशों का उल्लेख किया। यदि कोई पीड़ित मुकर जाता है, तो उसकी सुरक्षा कम नहीं होनी चाहिए बल्कि उसे और बढ़ाया जाना चाहिए।
- अनाचार (Incest) के मामलों में, पीड़ित को वैकल्पिक निवास और परामर्श प्रदान करना राज्य की जिम्मेदारी है।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO – Protection of Children from Sexual Offences Act):
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भारत में बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों को रोकने और अपराधियों को कड़ी सजा देने के लिए बनाया गया एक विशेष कानून है।
- यह कानून लड़के और लड़की दोनों पर समान रूप से लागू होता है। इस कानून के तहत 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को ‘बच्चा’ माना गया है।
- इसमें ‘मर्मभेदी यौन हमला’ (Penetrative Sexual Assault) और ‘गंभीर यौन हमला’ जैसे अपराधों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
- यह कानून “अपराधी को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक दोष सिद्ध न हो जाए” के सामान्य सिद्धांत के विपरीत काम करता है।
- इसमें न्यूनतम सजा से लेकर आजीवन कारावास और 2019 के संशोधन के बाद गंभीर मामलों में मृत्युदंड तक का प्रावधान है।
- इसकी धारा 164 के तहत दर्ज बयान मुकदमे में बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इसके तहत पीड़ित बच्चे की पहचान उजागर करना दंडनीय अपराध है।
- अधिनियम के अनुसार, मामले की जांच रिपोर्ट 2 महीने के भीतर और मुकदमे का निपटारा 1 वर्ष के भीतर होना चाहिए।
- इन मामलों की सुनवाई के लिए विशेष ‘POCSO कोर्ट’ गठित किए जाते हैं ताकि बच्चों को सामान्य अदालतों के तनावपूर्ण माहौल से बचाया जा सके।
विशेष: POCSO अधिनियम की धारा 29 और 30 के अनुसार एक बार जब अभियोजन ‘बुनियादी तथ्य’ (जैसे पीड़ित की आयु और यौन कृत्य का होना) साबित कर देता है, तो यह माना जाता है कि अभियुक्त ने अपराध किया है। साथ ही अभियुक्त को इसे ‘संभावनाओं की प्रबलता’ (Preponderance of Probabilities) के आधार पर गलत साबित करना होता है।

