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सुप्रीम कोर्ट ने जबरन नार्को टेस्ट को असंवैधानिक माना (Supreme Court declared forced narco test unconstitutional) | UPSC

Supreme Court declared forced narco test unconstitutional

Supreme Court declared forced narco test unconstitutional

संदर्भ:

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ‘अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025)’ मामले में फैसला सुनाया कि किसी भी आरोपी पर जबरन नार्को एनालिसिस या लाई-डिटेक्टर टेस्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह असंवैधानिक है। 

‘अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025)’ मामला:

  • निचले अदालत का आदेश: पटना उच्च न्यायालय ने आरोपी अमलेश कुमार की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस को उस पर और अन्य गवाहों पर नार्को टेस्ट करने की अनुमति दे दी थी, भले ही उनकी सहमति नहीं थी।
  • सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: अमलेश कुमार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसके बाद शीर्ष अदालत ने पटना हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया।
  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2010 के ऐतिहासिक फैसले (सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य-2010) को दोहराया कि जबरन नार्को टेस्ट संविधान के अनुच्छेद 20(3) (खुद के खिलाफ गवाही देने से संरक्षण) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
  • सहमति आवश्यक: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये परीक्षण केवल व्यक्ति की स्वतंत्र, सूचित और स्वैच्छिक सहमति से ही किए जा सकते हैं, और वह भी एक न्यायिक मजिस्ट्रेट की निगरानी में।
  • सबूत के रूप में मान्यता: यह भी कहा गया कि नार्को टेस्ट के परिणाम अपने आप में पूर्ण सबूत नहीं माने जा सकते, इनसे मिली जानकारी को केवल अन्य सबूतों की पुष्टि के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। 

नार्को टेस्ट क्या हैं?

  • नार्को-एनालिसिस एक फॉरेंसिक मनोविज्ञान तकनीक है जिसमें मनो-सक्रिय दवा का उपयोग करके व्यक्ति को पूछताछ के लिए अर्ध-चेतन अवस्था में रखा जाता है। इसे कभी-कभी “सत्य सीरम” भी कहा जाता है। 
  • चिकित्सा पेशेवरों और मनोवैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा, आमतौर पर चिकित्सा केंद्र में की जाने वाली इस प्रक्रिया में सोडियम पेंटोथल या सोडियम एमिटाल जैसी बार्बिट्यूरेट की नियंत्रित खुराक का इंजेक्शन लगाया जाता है। 
  • यह इंजेक्शन व्यक्ति के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को दबा देती है, जिससे संकोच कम हो जाता है और व्यक्ति के लिए झूठ बोलना मुश्किल हो जाता है। 
  • इसके बाद एक फोरेंसिक मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक इस अवस्था में व्यक्ति से पूछताछ करता है और इस सत्र को रिकॉर्ड किया जाता है।

सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) मामले में सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला:

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2010 में सेल्वी एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य मामले में यह ऐतिहासिक निर्णय दिया कि नार्को-एनालिसिस, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग परीक्षणों को किसी व्यक्ति पर उसकी इच्छा के विरुद्ध कराना असंवैधानिक है।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि “testimonial compulsion” का अर्थ केवल मौखिक बयान तक सीमित नहीं है। दवा-प्रेरित या अर्धचेतन अवस्था में प्राप्त जानकारी भी व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा के बिना होती है। अतः किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्षी बनने के लिए बाध्य करना सीधा अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन है।
  • जबरन परीक्षण व्यक्ति की मानसिक गोपनीयता, शारीरिक अखंडता और निजता पर गंभीर आघात है। न्यायालय ने इसे अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार की श्रेणी में रखा तथा इसे निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार अनुच्छेद 21 से भी जोड़ा।
  • परीक्षण स्वतंत्र एजेंसी द्वारा, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के दिशानिर्देशों के अनुसार किया जाना चाहिए। पूरी प्रक्रिया का चिकित्सकीय और तथ्यात्मक अभिलेखन आवश्यक है।
  • केवल वही भौतिक साक्ष्य या तथ्य, जो स्वैच्छिक परीक्षण के परिणामस्वरूप बाद में प्राप्त हों, धारा 27 के अंतर्गत स्वीकार्य हो सकते हैं।

इस निर्णय का महत्व:

  • मानवाधिकार और संवैधानिक नैतिकता: यह निर्णय मानव गरिमा, निजता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को सुदृढ़ करता है।

  • आपराधिक न्याय प्रणाली: यह पुलिस और जाँच एजेंसियों को संवैधानिक एवं वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करता है।

  • दुरुपयोग को रोकना: यह जांच एजेंसियों को इन परीक्षणों को जबरन कराने से रोकता है, निष्पक्ष प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करता है और जबरन परीक्षण के लिए न्यायिक आदेशों के दुरुपयोग को रोकता है।

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