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16वें राष्ट्रपति संदर्भ पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (Supreme Court Ruling on the 16th Presidential Reference) | UPSC

Supreme Court Ruling on the 16th Presidential Reference

Supreme Court Ruling on the 16th Presidential Reference

संदर्भ:

20 नवंबर 2025 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ ने 16वें राष्ट्रपति संदर्भ (Article 143) पर एक महत्वपूर्ण निर्णय जारी किया, जो न्यायालयें राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने की समय-सीमा से संबंधित था।

राष्ट्रपति संदर्भ (Article 143): संवैधानिक परिप्रेक्ष्य

Article 143 भारतीय संविधान में प्रदान किया गया एक विशेष प्रावधान है, जिसके अंतर्गत राष्ट्रपति किसी “सार्वजनिक महत्व” के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से राय मांग सकते हैं। यह राय सलाहकारी (advisory) होती है, बाध्यकारी नहीं। सर्वोच्च न्यायालय चाहे तो उत्तर देने से इंकार भी कर सकता है। यह प्रावधान सरकार और न्यायपालिका के बीच “संस्थागत संवाद” (institutional dialogue) की एक संवैधानिक व्यवस्था है।

स्वतंत्र भारत में अब तक लगभग 15 बार प्रयोग किया गया है, जैसे—Delhi Laws Case (1951), Kerala Education Bill (1958), Berubari (1960), और प्रसिद्ध Third Judges Case (1998)। 

16वाँ राष्ट्रपति संदर्भ: पृष्ठभूमि और प्रश्न

13 मई 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सर्वोच्च न्यायालय को 14 प्रमुख प्रश्न भेजे। ये प्रश्न दो-न्यायाधीशीय खंडपीठ के उस निर्णय से उत्पन्न हुए थे, जिसने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए बिलों पर कार्रवाई की “समय-सीमा” बनाई थी। राष्ट्रपति ने विशेष रूप से यह पूछा कि:

  • क्या न्यायपालिका राज्यपाल को Article 200 के अंतर्गत तय समय में निर्णय लेने के लिए बाध्य कर सकती है?
  • क्या Article 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति पर कोई समय सीमा लागू हो सकती है?
  • क्या न्यायालय “deemed assent” की अवधारणा निर्मित कर सकता है?
  • क्या राज्यपाल के निर्णय मंत्रीपरिषद की सलाह से बाध्य होते हैं?
  • क्या Article 361 का संरक्षण इन कार्यों पर न्यायिक समीक्षा को रोकता है?

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य अवलोकन और व्याख्या:

  • न्यायालय द्वारा समय-सीमा निर्धारित करने का सिद्धांत अस्वीकार्य: न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि संविधान ने जानबूझकर राज्यपाल (Article 200) और राष्ट्रपति (Article 201) के लिए कोई समय सीमा नहीं निर्धारित की है, इसलिए न्यायपालिका भी ऐसा नहीं कर सकती। संवैधानिक पदों के लिए निर्धारित “elasticity” को बाधित करना संविधान की मूल संरचना के विपरीत होगा।

  • निष्क्रियता पर सीमित न्यायिक नियंत्रण संभव: न्यायालय ने यह भी माना कि संवैधानिक पदाधिकारी अनिश्चितकाल तक फ़ाइलें रोके नहीं रख सकते। यदि उनके द्वारा “अत्यधिक, निरर्थक और अस्पष्ट” देरी होती है तो न्यायालय सीमित हस्तक्षेप कर सकता है, लेकिन केवल इतना कि पदाधिकारी निर्णय ले—not कि क्या निर्णय लें।

  • राज्यपाल की संवैधानिक विवेकाधिकारिता संरक्षित: न्यायालय ने पुष्टि की कि राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं—(i) अस्‍मति देना, (ii) विधेयक लौटाना, (iii) राष्ट्रपति के लिए सुरक्षित रखना। कोई “चौथा विकल्प”—जैसे बिल को अनिश्चितकाल रोकना—संविधान के विपरीत है। राज्यपाल की विवेकाधिकारिता मंत्रीपरिषद की सलाह से पूरी तरह बाध्य नहीं है, विशेषकर संवैधानिक अपवाद परिस्थितियों में।

  •  ‘Deemed Assent’ की अवधारणा का निषेध: न्यायालय ने कटाक्ष करते हुए कहा कि यदि न्यायालय असक्रियता को “स्वतः सहमति” मान ले, तो यह कार्यपालिका की भूमिका पर न्यायपालिका का आक्रमण होगा। Article 142 के अंतर्गत भी ऐसा करना असंवैधानिक बताया गया।

  • Article 361 और न्यायिक समीक्षा की सीमा: Article 361 के अंतर्गत राष्ट्रपति और राज्यपाल को व्यक्तिगत दायित्व से सुरक्षा है, लेकिन उनके कार्यालय की संवैधानिक क्रिया परीक्षण से मुक्त नहीं। न्यायालय उनके निर्णयों की प्रक्रिया की समीक्षा कर सकता है, लेकिन उन्हें व्यक्तिगत रूप से कठघरे में नहीं बुलाया जा सकता।

संविधानिक एवं शासन-संबंधी प्रभाव:

  • शक्तियों के पृथक्करण का सुदृढ़ीकरण: यह निर्णय स्पष्ट करता है कि न्यायपालिका कार्यपालिका की भूमिका नहीं निभा सकती। यह संविधान के checks and balances ढांचे की रक्षा करता है।

  • न्यायिक सक्रियता की सीमा का निर्धारण: यह निर्णय भारत की न्यायपालिका की सीमाओं को स्पष्ट करता है—न्यायालय कानून की व्याख्या कर सकता है, पर नीति या प्रशासनिक कार्य नहीं निर्धारित कर सकता।

  • केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव: राज्यपाल की भूमिका पर स्पष्टता से संघीय ढांचे में तनाव कम होने की संभावना है। यह cooperative federalism को मजबूत बनाता है।

  • विधायी प्रक्रिया में स्पष्टता: राज्य सरकारें और केंद्र दोनों अब जानते हैं कि बिल के अस्‍मति-प्रक्रिया में संविधान स्पष्ट रूप से तीन विकल्प देता है, और किसी भी नए “अवधारणात्मक विकल्प” की अनुमति नहीं।

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