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Bharatiya Nyaya Sanhita में अप्राकृतिक sex अपराध है या नहीं? : दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र से पूछा

भारतीय राजनीति :  GS पेपर – 1, GS पेपर – 2, ट्रांसजेंडरों से संबंधित मुद्दे, सामाजिक सशक्तिकरण, निर्णय एवं मामले, भारतीय समाज

चर्चा में क्यों?

हाल ही  में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र से भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya SanhitaBNS) से अप्राकृतिक यौन संबंध और कुकर्म के अपराधों के लिए दंडात्मक प्रावधानों को बाहर करने पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा हैं। यह नया आपराधिक कानून 1 जुलाई, 2024 से प्रभावी हुआ था तथा इसने 1860 के भारतीय दंड संहिता (IPC) का स्थान लिया था।

पृष्ठभूमि:

  • 2018 सुप्रीम कोर्ट ने “नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ” मामले में फैसला दिया था कि समलैंगिकता को अपराध नहीं माना जाएगा और IPC की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) को समान-लैंगिक संबंधों पर लागू नहीं किया जाएगा।
  • धारा 377 के तहत, जो भी व्यक्ति “प्रकृति के आदेश के खिलाफ किसी पुरुष, महिला या जानवर के साथ स्वेच्छा से संभोग करता है”, उसे सजा मिलती थी।
  • हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने तब इस प्रावधान की व्याख्या की थी, लेकिन धारा 377 IPC में तब तक बनी रही जब तक कि Bharatiya Nyaya Sanhita (BNS) लागू नहीं हुआ, जिसमें इसे पूरी तरह हटा दिया गया।
  • अब याचिकाकर्ता यह तर्क कर रहे हैं कि धारा 377 के हटने से अप्रत्याशित समस्याएँ पैदा हो सकती हैं, खासकर बिना सहमति के यौन अपराधों के मामले में।
  • उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले के बावजूद धारा 377 ने पुरुषों और LGBTQIA+ व्यक्तियों को बिना सहमति के यौन संबंधों से सुरक्षा प्रदान की थी।

धारा 377

धारा 377 भारतीय दंड संहिता (IPC) की एक धारा है, जो “अप्राकृतिक अपराधों” (unnatural offences) से संबंधित थी। इसे 1861 में ब्रिटिश शासन के दौरान लागू किया गया था। इस धारा के तहत “प्रकृति की व्यवस्था के खिलाफ” (against the order of nature) यौन संबंध रखने वाले व्यक्तियों को अपराधी माना जाता था और इसके लिए उन्हें सजा दी जा सकती थी।

विवाद और कानूनी बदलाव:

·     समलैंगिकता का अपराधीकरण (Criminalization of Homosexuality): धारा 377 का उपयोग मुख्य रूप से समलैंगिकता (homosexuality) को अपराधी मानने के लिए किया जाता था, जिससे LGBTQ+ समुदाय को कानूनी और सामाजिक दमन (legal and social repression) का सामना करना पड़ा।

·     नाज़ फाउंडेशन केस (2009) (Naz Foundation Case, 2009): दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) ने इस धारा को आंशिक रूप से असंवैधानिक (partially unconstitutional) घोषित किया, जिससे सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों (same-sex relations) को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया।

·     सुप्रीम कोर्ट का 2013 का फैसला (Supreme Court’s 2013 Judgment): इस फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने धारा 377 को पुनः बहाल कर दिया, जिससे समलैंगिकता को फिर से अपराध घोषित कर दिया गया।

·     नवतेज सिंह जौहर केस (2018) (Navtej Singh Johar Case, 2018): सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय (historic judgment) में धारा 377 को आंशिक रूप से रद्द (partially struck down) कर दिया, जिससे सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता (legal recognition) मिली। इस फैसले ने LGBTQ+ समुदाय को संवैधानिक अधिकार और सम्मान (constitutional rights and dignity) दिलाया।

धारा 377 क्या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है? कैसे?

धारा 377 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए आंशिक रूप से रद्द किया था कि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। इस धारा के तहत सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाता था, जो संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव के खिलाफ अधिकार), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करता है।

कैसे:

·     समानता का अधिकार (Right to Equality – Article 14): धारा 377 सहमति से समलैंगिक संबंध रखने वाले व्यक्तियों को अपराधी मानती थी, जो कि समानता के अधिकार का उल्लंघन है। यह कानून बिना उचित आधार के एक वर्ग के लोगों के साथ भेदभाव करता था।

·     भेदभाव के खिलाफ अधिकार (Right against Discrimination – Article 15): इस धारा के तहत, किसी व्यक्ति की यौनिकता के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता था, जो अनुच्छेद 15 के तहत अस्वीकार्य है।

·     अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Expression – Article 19): धारा 377 लोगों के यौन अभिव्यक्ति के अधिकार को बाधित करती थी, जो उनके व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है।

·     जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Life and Personal Liberty – Article 21): सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यौनिकता किसी व्यक्ति के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है। धारा 377 ने इस स्वतंत्रता का उल्लंघन किया, क्योंकि यह लोगों को उनके यौन संबंधों के लिए अपराधी बनाती थी, जो कि उनके जीवन का एक निजी और व्यक्तिगत हिस्सा है।

धारा 377 का बहिष्कार और इसके परिणामः

·     धारा 377 का बहिष्कार (Exclusion of Section 377):

·     Bharatiya Nyaya Sanhita (BNS) विधेयक, 2023, जिसे भारतीय दंड संहिता (IPC) के स्थान पर पेश किया गया है, में धारा 377 को शामिल नहीं किया गया है।

·     धारा 377 वयस्कों के बीच असहमति से यौन संबंध (non-consensual sex) और जानवरों के खिलाफ यौन अपराधों (sexual offences) को अपराध की श्रेणी में रखती थी।

·     धारा 377 के बहिष्कार के बाद अब पुरुषों (men), ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (transgender individuals) और जानवरों (animals) के साथ यौन अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है।

कानूनी और सामाजिक प्रभाव (Legal and Social Impact):

·       सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में सहमति से समलैंगिक संबंधों (same-sex relationships) को अपराधमुक्त कर दिया था, लेकिन धारा 377 को IPC में बनाए रखा गया था ताकि जानवरों, पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन अपराधों को दंडित किया जा सके।

·       धारा 377 को हटाने से पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन हिंसा (sexual violence against men and transgender persons) के लिए कानूनी सुरक्षा में कमी आ सकती है।

·       नए विधेयक (new Bill) में धारा 377 को शामिल न करने से कानून में एक महत्वपूर्ण अंतराल (gap) पैदा होता है, जो कमजोर समुदायों (vulnerable communities) के लिए संरक्षण में कमी का कारण बन सकता है।

सामाजिक दृष्टिकोण और चुनौतियां (Social Perspective and Challenges):

·       समाज में महिलाओं के खिलाफ बलात्कार (rape) को उनके परिवार और कुल की गरिमा (dignity) का अपमान माना जाता है, जबकि अन्य व्यक्तियों के खिलाफ बलात्कार को केवल उनके शरीर (body) पर हमला समझा जाता है, और इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता।

·       यौन अल्पसंख्यकों (sexual minorities) के खिलाफ पुलिस (police) और कानून प्रवर्तन एजेंसियों (law enforcement agencies) द्वारा यौन हिंसा (sexual violence) का खतरा बना रहता है। इसलिए, कानून के साथ-साथ समाज में संवेदनशीलता (social sensitisation) और पुलिस की जवाबदेही (accountability) भी ज़रूरी है।

राज्य की जिम्मेदारी और चुनौतियां (State Responsibility and Challenges):

·   राज्य का दायित्व (State’s duty) केवल कानून में सुरक्षा प्रावधान करना ही नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि यह सुरक्षा सभी के लिए सुलभ (accessible) हो।

·   नए विधेयक में धारा 377 को शामिल न करने से यह संदेश जाता है कि पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन हिंसा को अपराध के रूप में उतनी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।

धारा 377 का LGBTQIA+ समुदाय पर प्रभाव (Impact of Section 377 on the LGBTQIA+ Community)

  • पहचान और अस्तित्व पर खतरा (Threat to Identity and Existence): धारा 377 के तहत समलैंगिकता (homosexuality) को अपराध की श्रेणी में रखा गया था, जिससे LGBTQIA+ समुदाय के सदस्यों को अपने पहचान (identity) और अस्तित्व (existence) के लिए संघर्ष करना पड़ा। इस धारा के चलते उन्हें समाज में खुलकर जीने का अधिकार नहीं था, जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य (mental health) पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
  • कानूनी और सामाजिक उत्पीड़न (Legal and Social Harassment): धारा 377 के कारण LGBTQIA+ समुदाय को न केवल कानूनी उत्पीड़न (legal harassment) का सामना करना पड़ा, बल्कि उन्हें सामाजिक भेदभाव (social discrimination) और हिंसा (violence) का भी शिकार होना पड़ा। इस धारा का उपयोग अक्सर पुलिस (police) और अन्य लोगों द्वारा उन्हें डराने-धमकाने के लिए किया जाता था।
  • समानता के अधिकार का हनन (Violation of Right to Equality): यह धारा समानता के अधिकार (right to equality) के खिलाफ थी, क्योंकि यह समलैंगिक और अन्य यौन अल्पसंख्यकों (sexual minorities) को समान अधिकारों से वंचित करती थी। इससे LGBTQIA+ समुदाय के लोग कानूनी सुरक्षा (legal protection) और सामाजिक स्वीकृति (social acceptance) से वंचित रहे।
  • स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में बाधा (Barrier to Accessing Health Services): धारा 377 के चलते LGBTQIA+ समुदाय के लोग स्वास्थ्य सेवाओं (health services) तक आसानी से नहीं पहुंच पाते थे। HIV/AIDS जैसी बीमारियों के इलाज के लिए जरूरी जागरूकता (awareness) और सेवाओं का लाभ उठाने में उन्हें कठिनाई होती थी, क्योंकि उन्हें अपनी पहचान छुपानी पड़ती थी।
  • मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव (Negative Impact on Mental Health): धारा 377 के कारण LGBTQIA+ समुदाय के सदस्यों को मानसिक तनाव (mental stress), अवसाद (depression), और आत्महत्या (suicide) जैसी गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा। यह धारा उनके जीवन में असुरक्षा (insecurity) और हताशा (despair) को बढ़ावा देती थी।
  • कानूनी मान्यता की कमी (Lack of Legal Recognition): इस धारा के रहते LGBTQIA+ समुदाय के सदस्य अपने संबंधों की कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं कर सकते थे। इससे उनके संबंधों से जुड़े कानूनी अधिकार (legal rights) जैसे संपत्ति, उत्तराधिकार, और गोद लेने के अधिकार (adoption rights) प्रभावित होते थे।
  • रोजगार और शिक्षा में भेदभाव (Discrimination in Employment and Education): धारा 377 के कारण LGBTQIA+ समुदाय के लोग रोजगार (employment) और शिक्षा (education) के क्षेत्र में भेदभाव (discrimination) का सामना करते थे। उन्हें अक्सर नौकरी और शिक्षा के अवसरों से वंचित किया जाता था, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति (economic status) पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता था।
  • सामाजिक स्वीकृति की कमी (Lack of Social Acceptance): इस धारा के कारण समाज में LGBTQIA+ समुदाय को स्वीकृति (acceptance) प्राप्त नहीं होती थी। उन्हें अपने परिवार, दोस्तों, और समाज से समर्थन (support) नहीं मिलता था, जिससे उनके सामाजिक जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ता था।
  • मानवीय गरिमा का उल्लंघन (Violation of Human Dignity): धारा 377 ने LGBTQIA+ समुदाय की मानवीय गरिमा (human dignity) का उल्लंघन किया, जिससे उन्हें समाज में अपमानित (humiliated) और अपमानित महसूस करना पड़ा। यह धारा उनकी मानवाधिकारों (human rights) के खिलाफ थी, जिससे उनके सम्मान (respect) और स्वतंत्रता (freedom) पर चोट पहुंचती थी।

LGBTQIA+ के बारे में –

LGBTQIA+ एक संक्षिप्त नाम है जो विविध लैंगिक और यौन पहचान के लोगों के समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। यह समुदाय उन लोगों को समेटता है जो समाज द्वारा स्थापित पारंपरिक लैंगिक और यौन मानदंडों से अलग अपनी पहचान रखते हैं। आइए इस संक्षिप्त नाम को विस्तार से समझें:

  • L: Lesbian – ऐसी महिलाएं जो अन्य महिलाओं के यौन आकर्षण महसूस करती हैं।
  • G: Gay – ऐसे पुरुष जो अन्य पुरुषों के यौन आकर्षण महसूस करते हैं। यह शब्द कभी-कभी समलैंगिक महिलाओं के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
  • B: Bisexual – वे लोग जो एक से अधिक लिंग के प्रति यौन आकर्षण महसूस करते हैं।
  • T: Transgender – वे लोग जिनका जन्म के समय निर्धारित लिंग उनकी आंतरिक लैंगिक पहचान से मेल नहीं खाता।
  • Q: Queer – एक व्यापक शब्द जो उन सभी लोगों को शामिल करता है जिनकी लैंगिक पहचान या यौन अभिविन्यास विषमलैंगिक या cisgender नहीं है।
  • I: Intersex – वे लोग जिनके शारीरिक लक्षण पारंपरिक रूप से पुरुष या महिला शरीर के लिए निर्धारित जैविक और शारीरिक मानदंडों में पूरी तरह फिट नहीं होते हैं।
  • A: Asexual – वे लोग जो दूसरों के प्रति यौन आकर्षण महसूस नहीं करते या बहुत कम करते हैं।
  • +: यह प्रतीक यह दर्शाता है कि LGBTQIA+ समुदाय में और भी कई लैंगिक और यौन पहचान शामिल हैं जो इस संक्षिप्त नाम में स्पष्ट रूप से शामिल नहीं हैं।

 धारा 377 को हटाने के BNS में वैकल्पिक सुरक्षा प्रावधान:

  • BNS के अध्याय V में “महिला और बालक के खिलाफ अपराध” का उल्लेख किया गया है, जिसमें धारा 63 के तहत बलात्कार की परिभाषा और सजा दी गई है।
    • हालांकि, यह प्रावधान केवल महिलाओं के खिलाफ पुरुषों द्वारा किए गए अपराधों के संदर्भ में बलात्कार को परिभाषित करता है, जो जेंडर के आधार पर एकपक्षीय है।
  • दूसरी ओर, IPC की धारा 377 (जब यह लागू थी) बिना सहमति के किसी भी पुरुष, महिला, या जानवर के साथ यौन संबंध स्थापित करने पर कड़ी सजा का प्रावधान करती थी।
    • अपराधियों को आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा दी जा सकती थी।

Bharatiya Nyaya Sanhita (BNS) के तहत वैकल्पिक सुरक्षा प्रावधान:

  • Bharatiya Nyaya Sanhita (BNS) की धारा 36 प्रत्येक व्यक्ति को “निजी रक्षा का अधिकार” प्रदान करती है, ताकि वे अपने शरीर या अन्य व्यक्ति के शरीर की सुरक्षा कर सकें।
  • यह अधिकार “चोरी, डकैती, शरारत या आपराधिक अतिचार” के खिलाफ संपत्ति की रक्षा के लिए भी है।
  • धारा 38 में उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जहां यह अधिकार “आक्रमणकारी को मृत्यु या किसी अन्य नुकसान का कारण बनने” की अनुमति देता है।
  • इसमें “बलात्कार के इरादे से किए गए आक्रमण” या “अप्राकृतिक वासना को संतुष्ट करने के इरादे से किए गए आक्रमण” जैसी परिस्थितियाँ शामिल हैं।
  • बलात्कार के अपराध के विपरीत, ये प्रावधान किसी विशेष लिंग तक सीमित नहीं हैं।

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQs)

मुख्य परीक्षा:

प्रश्न : निजता के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम निर्णय (2017) के प्रकाश में मौलिक अधिकारों के दायरे की जांच करें।

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