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भारत में लौह युग

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संदर्भ:

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने हाल ही में घोषणा की कि तमिल भूमि पर लौह युग की शुरुआत 5,300 वर्ष पहले (चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) हुई थी। यह दावा मयिलाडुमपरई, शिवगलई, आदिचनल्लूर और कीलनामंडी में हुई पुरातात्विक खोजों पर आधारित है।

भारत में लौह युग:

  1. पारंपरिक समय-सीमा– पहले माना जाता था कि भारत में लौह युग 700-600 ईसा पूर्व में शुरू हुआ।
  2. नई खोजें और रेडियोकार्बन डेटिंग– अब प्रमाण मिले हैं कि लौह धातु गलाने (iron smelting) की शुरुआत 1800 ईसा पूर्व में गंगा के मैदानी भाग और पूर्वी विंध्य क्षेत्र में हुई थी।
  3. तमिलनाडु में नई खोज– हाल ही में दक्षिण भारत (तमिलनाडु) में 3300 ईसा पूर्व में लौह धातु विज्ञान (metallurgy) के प्रमाण मिले हैं, जो भारत में लौह युग की शुरुआत को पहले से भी प्राचीन सिद्ध करते हैं।

भारत में लौह युग के प्रमुख स्थल:

  • उत्तर भारत (North India)
    • प्रारंभिक प्रमाण – उत्तर भारत में 1800 ईसा पूर्व में लोहे का उपयोग होने के प्रमाण मिले हैं, लेकिन लौह युग 1200 ईसा पूर्व के आसपास शुरू हुआ। (राकेश तिवारी, 2003)
  • प्रमुख पुरातात्विक स्थल –
    • राजा नल-का-टीलामल्हारदादूपुर (उत्तर प्रदेश) – इन स्थलों से 1800 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के बीच के लोहे के औजार, भट्ठियां और टुयेर (धौंकनी के नलिका अवशेष) मिले हैं।
    • मल्हार (उत्तर प्रदेश) – यहाँ मिले धातु अवशेष, भट्ठियां, और लोहे के तैयार औजारों से संकेत मिलता है कि यह लोहे के उपकरणों के बड़े पैमाने पर उत्पादन का केंद्र था।
    • तकनीकी अध्ययन – यह संकेत मिलता है कि भारत में 16वीं शताब्दी ईसा पूर्व में ही लौह गलन प्रक्रिया (iron smelting) शुरू हो चुकी थी।
    • संस्कृति और कालखंड – उत्तर भारत में लौह युग Painted Grey Ware (PGW) संस्कृति (1300-300 ईसा पूर्व) और Northern Black Polished Ware (NBPW) संस्कृति (700-200 ईसा पूर्व) के साथ सह-अस्तित्व में था।
  • ऐतिहासिक संगति – यह काल उत्तर वैदिक काल और महाजनपद काल से मेल खाता है।
  • दक्षिण भारत (South India): नई खोजें– तमिलनाडु राज्य पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट ‘Antiquity of Iron: Recent Radiometric Dates from Tamil Nadu’ के अनुसार, दक्षिण भारत में लौह युग की शुरुआत 3345 ईसा पूर्व से 2953 ईसा पूर्व (चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) के बीच हो चुकी थी।
  • महत्वपूर्ण निष्कर्ष
    • उत्तर भारत में जब ताम्र युग (Copper Age) चल रहा था, तब दक्षिण भारत लौह युग में प्रवेश कर चुका था
    • इसका कारण यह हो सकता है कि दक्षिण भारत में तांबे के व्यावसायिक रूप से उपयोगी भंडार सीमित थे, जिससे वहां जल्दी लौह तकनीक का विकास हुआ।

लौह खोज का महत्व:

  1. औजारों और हथियारों का विकास
    • लोहे से मजबूत और टिकाऊ औजार बने, जिससे खेती, निर्माण और शिल्पकला में क्रांति आई।
    • युद्ध में लोहे के कठोर और धारदार हथियारों ने सैन्य शक्ति को बढ़ाया।
  2. कृषि उत्पादन में वृद्धि
    • लोहे के हल और दरांती जैसे उपकरणों ने कृषि कार्य आसान बनाया।
    • कठोर मिट्टी की जोताई संभव हुई, जिससे अन्न उत्पादन बढ़ा और स्थायी बस्तियों का विकास हुआ।
  3. सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन
    • व्यापार और शिल्प उद्योग का विस्तार हुआ, जिससे शहरीकरण तेज हुआ।
    • श्रेणीबद्ध समाज की शुरुआत हुई, जिसमें लोहारों और धातुकारों का विशेष महत्व बढ़ा।
  4. स्थापत्य कला और बुनियादी ढांचे में योगदान
    • लोहे का उपयोग भवन निर्माण, पुलों और सड़कों में होने लगा।
    • बड़े पैमाने पर राजमहलों, किलों और मंदिरों का निर्माण संभव हुआ।

 

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