Dieback disease in Neem trees

संदर्भ:
हाल ही में तेलंगाना के हैदराबाद सहित कई जिलों में नीम (Azadirachta indica) वृक्षों में बड़े पैमाने पर डाइबैक रोग फैल रहा है। इस गंभीर स्थिति को देखते हुए वन महाविद्यालय एवं अनुसंधान संस्थान (Forest College and Research Institute–FCRI) ने एक बहुआयामी वैज्ञानिक अध्ययन शुरू किया है।
नीम भारत का एक मूल, औषधीय, पारिस्थितिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण वृक्ष है। शहरी क्षेत्रों में यह सूक्ष्म जलवायु संतुलन, जैव विविधता संरक्षण और वायु शुद्धिकरण में अहम भूमिका निभाता है।
नीम डाइबैक रोग का स्वरूप:
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रोग के लक्षण: डाइबैक रोग में संक्रमण सामान्यतः ऊपरी शाखाओं से शुरू होकर नीचे की ओर फैलता है। यह समस्या विशेष रूप से मानसून के बाद स्पष्ट होती है। पत्तियों का झुलसना, शाखाओं का सूखना, पर्ण आवरण का पतला होना और फूल व फल उत्पादन में भारी कमी इसके प्रमुख लक्षण हैं। कुछ वृक्षों में पूरा छत्र प्रभावित हो जाता है, जबकि कई वृक्षों में यह ऊपरी भाग तक सीमित रहता है।
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रोग का कारण: वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार नीम डाइबैक का प्रमुख कारण फंगल रोगजनक फोमोप्सिस एजाडिरैक्टी (Phomopsis azadirachtae) है। यह रोगजनक नमी और वर्षा के बाद सक्रिय हो जाता है तथा अक्टूबर से फरवरी के बीच इसके लक्षण सबसे अधिक दिखाई देते हैं। कई मामलों में कीट आक्रमण, विशेषकर टी मच्छर कीट (Helopeltis antonii), वृक्ष को कमजोर कर देते हैं।
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रोग का प्रसार: यह रोग बीज जनित और बीज संचरित दोनों प्रकार का है, अर्थात संक्रमित बीजों से नए पौधों में रोग फैल सकता है। इसके अतिरिक्त, फंगल बीजाणु वर्षा की बूंदों और कीटों के माध्यम से फैलते हैं। उच्च आर्द्रता, भारी वर्षा, जलवायु परिवर्तन और लंबे सूखे काल वृक्षों की प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करते हैं, जिससे संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
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भारत में विस्तार: नीम डाइबैक रोग की पहली रिपोर्ट 1990 के दशक में देहरादून (उत्तराखंड) से मिली थी। हाल के वर्षों में यह रोग तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में व्यापक रूप से देखा गया है। वन क्षेत्रों में इसका समान प्रभाव दर्शाता है कि यह राष्ट्रीय स्तर की वन समस्या बन चुका है।
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पर्यावरणीय प्रभाव: नीम वृक्षों का बड़े पैमाने पर क्षय पर्यावरणीय क्षति का कारण बन रहा है। नीम से प्राप्त एजाडिरैक्टिन जैसे प्राकृतिक कीटनाशक जैविक कृषि की रीढ़ हैं। रोग के कारण लगभग 100 प्रतिशत तक बीज उत्पादन में कमी देखी गई है, जिससे प्राकृतिक कीटनाशकों की उपलब्धता प्रभावित होती है। साथ ही, शहरी क्षेत्रों में नीम की कमी तापमान वृद्धि, वायु गुणवत्ता में गिरावट और जैव विविधता ह्रास को बढ़ा सकती है।
नियंत्रण और प्रबंधन रणनीतियाँ:
- विशेषज्ञ नर्सरी स्तर से ही प्रबंधन पर बल देते हैं। इसके लिए बीजों का फफूंदनाशी उपचार या जैव-नियंत्रक एजेंट (जैसे ट्राइकोडर्मा) से उपचार आवश्यक है।
- संक्रमित वृक्षों में बीमार शाखाओं की छंटाई और नष्ट करना संक्रमण को रोकने में सहायक है। इसके बाद फफूंदनाशी और कीटनाशी का संयोजन उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
- दीर्घकालिक समाधान के लिए समुदाय आधारित प्रयास, जैव-नियंत्रण अनुसंधान और जलवायु अनुकूल वन प्रबंधन अत्यंत आवश्यक हैं।
