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मानव रोग में एपिजेनेटिक्स की भूमिका

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एपिजेनेटिक्स एक महत्वपूर्ण जैविक प्रक्रिया है जो बिना डीएनए अनुक्रम को बदले जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करती है। यह प्रक्रिया डीएनए और हिस्टोन प्रोटीन पर होने वाले संशोधनों, जैसे मिथाइलेशन और एसिटिलेशन, के माध्यम से होती है। इसके अतिरिक्त, गैर-कोडिंग आरएनए (ncRNA) भी जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते हैं।

एपिजेनेटिक संशोधन और उनका महत्व:

एपिजेनेटिक संशोधन जीन को सक्रिय या निष्क्रिय कर सकते हैं। उदाहरण के लिए:

  • डीएनए मिथाइलेशन: आमतौर पर जीन को दबाने का काम करता है।
  • हिस्टोन एसिटिलेशन: जीन को सक्रिय करने में मदद करता है।

बाहरी और आंतरिक कारक जैसे पोषण, तनाव, विषाक्त पदार्थों का संपर्क, उम्र बढ़ना और हार्मोनल विकार इन संशोधनों को प्रभावित कर सकते हैं। इन संशोधनों का प्रभाव कभी-कभी पीढ़ियों तक भी देखा जा सकता है, जिसे इंटरजेनरेशनल और ट्रांसजेनरेशनल एपिजेनेटिक विरासत कहा जाता है।

एपिजेनेटिक्स और विकास:

मानव भ्रूण के विकास के दौरान, क्रोमेटिन संरचना में बड़े बदलाव होते हैं जो जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करते हैं। ये परिवर्तन महत्वपूर्ण विकासात्मक चरणों में आवश्यक होते हैं। एपिजेनेटिक संशोधन भ्रूण और पीजीसी (गर्म सेल्स) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिससे विकासात्मक कार्यक्रम स्थापित होते हैं।

एपिजेनेटिक्स और रोग:

असामान्य एपिजेनेटिक संशोधन कई बीमारियों के लिए जिम्मेदार होते हैं। उदाहरण के लिए:

  • कैंसर: इसमें जीन के हाइपरमेथिलेशन और हाइपोमेथिलेशन पैटर्न देखे गए हैं।
  • तंत्रिका संबंधी विकार: जैसे पार्किंसंस और अवसाद में एपिजेनेटिक परिवर्तनों की भूमिका देखी गई है।
  • पर्यावरणीय कारक: विषाक्त पदार्थों का संपर्क बीमारियों के विकास में योगदान दे सकता है।

जीवनशैली और एपिजेनेटिक्स

जीवनशैली के कारक जैसे आहार, व्यायाम, और तनाव, डीएनए मिथाइलेशन और हिस्टोन संशोधन पर प्रभाव डालते हैं:

  • स्वस्थ जीवनशैली: सकारात्मक एपिजेनेटिक प्रभाव डाल सकती है।
  • दीर्घकालिक तनाव: हानिकारक एपिजेनेटिक परिवर्तनों का कारण बन सकता है।

एपिजेनेटिक थेरेपी:

चूंकि एपिजेनेटिक संशोधन प्रतिवर्ती होते हैं, इसलिए उन्हें औषधीय और पर्यावरणीय हस्तक्षेपों के माध्यम से पुनः प्रोग्राम किया जा सकता है। यह थेरेपी कैंसर और तंत्रिका अपक्षयी विकारों के उपचार में उपयोगी हो सकती है। हालाँकि, इस प्रकार की थेरेपी में नैतिकता और गोपनीयता से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है।

गैर-कोडिंग आरएनए (ncRNA):

गैर-कोडिंग आरएनए (ncRNA) ऐसे RNA अणु होते हैं, जो प्रोटीन के रूप में अनुवादित (translated) नहीं होते। ये RNA अणु केवल अनुवाद न होने के बावजूद विभिन्न जैविक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनका कार्य प्रोटीन-कोडिंग जीन से अलग होता है, लेकिन कोशिकीय प्रक्रियाओं के लिए ये अत्यंत आवश्यक होते हैं।

गैर-कोडिंग आरएनए के प्रकार

  1. माइक्रोआरएनए (miRNA):
    • छोटे, लगभग 20-25 न्यूक्लियोटाइड लंबे RNA अणु होते हैं।
    • ये mRNA के साथ मिलकर उसका विनाश या उसका अनुवाद रोकते हैं, जिससे जीन की अभिव्यक्ति को नियंत्रित किया जा सके।
  2. लंबे गैर-कोडिंग आरएनए (lncRNA):
    • ये 200 से अधिक न्यूक्लियोटाइड लंबे होते हैं।
    • जीन अभिव्यक्ति के नियमन, क्रोमेटिन मॉडिफिकेशन, और मॉलिक्यूलर चैपरोन जैसी प्रक्रियाओं में शामिल होते हैं।
  3. रिबोसोमल आरएनए (rRNA): यह राइबोसोम का मुख्य घटक होता है, जो प्रोटीन संश्लेषण (protein synthesis) में मदद करता है।
  4. ट्रांसफर आरएनए (tRNA): यह अमीनो एसिड को राइबोसोम तक पहुँचाता है और mRNA के अनुसार उन्हें प्रोटीन में जोड़ता है।
  5. स्मॉल इंटरफेरिंग आरएनए (siRNA): यह छोटे दोहरे फंसे हुए RNA होते हैं, जो mRNA के निशाने पर जाकर उसकी टूट-फूट कर देते हैं और जीन साइलेंसिंग में सहायक होते हैं।
  6. स्नोआरएनए (snoRNA): ये आरएनए अणु ribosomal RNA के रासायनिक परिवर्तन (chemical modification) में शामिल होते हैं।

गैर-कोडिंग आरएनए की भूमिकाएँ

  • जीन साइलेंसिंग: miRNA और siRNA जीन साइलेंसिंग प्रक्रिया में मुख्य भूमिका निभाते हैं। वे विशिष्ट mRNA अणुओं को निशाना बनाते हैं और उन्हें नष्ट या बाधित करते हैं।
  • क्रोमेटिन संरचना का नियमन: lncRNA क्रोमेटिन के संरचनात्मक परिवर्तन में मदद करते हैं, जिससे जीन की अभिव्यक्ति नियंत्रित होती है।
  • एपिजेनेटिक परिवर्तन: lncRNA एपिजेनेटिक स्तर पर जीन की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं।
  • प्रोटीन संश्लेषण: rRNA और tRNA प्रोटीन निर्माण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

निष्कर्ष:

एपिजेनेटिक्स का अध्ययन यह समझने में मदद करता है कि कैसे बाहरी और आंतरिक कारक जीन अभिव्यक्ति को प्रभावित करते हैं और यह विभिन्न बीमारियों से कैसे जुड़ा होता है। इस जानकारी का उपयोग नई चिकित्सीय विधियों के विकास में किया जा सकता है, लेकिन इसके साथ ही नैतिक और सार्वजनिक नीति के मुद्दों पर विचार करना भी आवश्यक है।

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