Emperor Perumbidugu Mutharaiyar II Suvarna Maran
संदर्भ:
हाल ही में उपराष्ट्रपति ने नई दिल्ली स्थित उपराष्ट्रपति निवास में सम्राट पेरुम्बिदुगु मुत्तारैयार द्वितीय के सम्मान में स्मारक डाक टिकट जारी किया। यह पहल भारत के प्रारम्भिक मध्यकालीन इतिहास में मुत्तारैयार वंश के योगदान को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्रदान करती है।
सम्राट पेरुम्बिडुगु मुथारैयार द्वितीय का शासन:
- पेरुम्बिदुगु मुत्तारैयार द्वितीय, जिन्हें सुवर्ण मारन के नाम से भी जाना जाता है, का शासनकाल लगभग 705 ईस्वी से 745 ईस्वी तक माना जाता है।
- वे मुत्तारैयार वंश के सबसे शक्तिशाली शासकों में गिने जाते हैं। यह काल दक्षिण भारत में पल्लव–चोल संक्रमण काल के रूप में जाना जाता है, जब क्षेत्रीय सामंत धीरे-धीरे स्वतंत्र शक्ति केंद्र के रूप में उभर रहे थे।
भौगोलिक विस्तार और सैन्य-प्रशासनिक दक्षता:
- सम्राट पेरुम्बिदुगु मुत्तारैयार का शासन कावेरी नदी के मध्य डेल्टा क्षेत्र तक विस्तृत था, जिसमें आज के तंजावुर, तिरुचिरापल्ली, पुदुकोट्टई और पेरम्बलूर जिले शामिल थे।
- प्रारम्भ में वे पल्लव शासकों, विशेषकर नंदीवर्मन द्वितीय के अधीन सामंत थे, किंतु पल्लव शक्ति के कमजोर होने पर उन्होंने अर्ध-स्वतंत्र शासक के रूप में स्वयं को स्थापित किया।
- इतिहासिक अभिलेखों के अनुसार पेरुम्बिदुगु मुत्तारैयार द्वितीय ने कम से कम 16 युद्धों में भाग लिया। वे पल्लव सेनापति उदयचंद्र के साथ मिलकर पांड्य और चेर शासकों के विरुद्ध लड़े।
- उनकी सैन्य क्षमता के कारण उन्हें ‘शत्रुभयंकऱ’, ‘शत्रुकेसरी’ और ‘कलवरा कलवन’ जैसी उपाधियाँ प्राप्त हुईं।
- प्रशासनिक स्तर पर वे राजस्व संग्रह, सिंचाई व्यवस्था और स्थानीय शासन में दक्ष माने जाते थे। कावेरी क्षेत्र की उर्वरता को बनाए रखने के लिए उन्होंने जल प्रबंधन प्रणालियों को सुदृढ़ किया, जिसका उल्लेख कई तमिल अभिलेखों में मिलता है।
धार्मिक नीति और सामाजिक छवि:
- सम्राट पेरुम्बिदुगु मुत्तारैयार द्वितीय मुख्यतः शैव धर्म के संरक्षक थे, किंतु उनका दरबार धार्मिक सहिष्णुता का उत्कृष्ट उदाहरण था।
- ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार जैन मुनि विमलचंद्र ने उनके दरबार में शैव, कापालिक और बौद्ध विद्वानों के साथ दार्शनिक वाद-विवाद किए। यह तथ्य उस काल में बौद्धिक बहुलता और धार्मिक संवाद को दर्शाता है।
- मुत्तारैयार शासकों को तमिलनाडु में प्रारम्भिक शैलकृत और संरचनात्मक मंदिरों के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। उनका स्थापत्य शैली बाद में विकसित हुई भव्य चोल मंदिर वास्तुकला की आधारशिला बनी। यह योगदान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि विजयालय चोल के उदय (9वीं शताब्दी) से पहले यही परंपरा आगे बढ़ी।
- साथ ही प्राचीन तमिल साहित्यिक ग्रंथ ‘नालडियार’ में पेरुम्बिदुगु मुत्तारैयार द्वितीय के सम्मान में दो पद्य मिलते हैं। इनमें उनके वैभवपूर्ण भोज, समृद्धि और दानशीलता का वर्णन है।

